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दस्युराज चिंधुच्चर भी दीक्षा लेने के लिए दृढ़ संकल्प हो चल रहा था। कमार की समस्त भव-विवाहिता पनि उद्दश्य का अनगमन की और स्थयों कुमार के माता-पिता तथा रक्त वधुओं के माता-पिता भी उसी उद्देश्य से साथ नला रहे थे। कहते हैं कि जहाँ केवले एक दीक्षार्थी यो, अब उसके सहित 527 स्त्री-पुरुष दीक्षार्थी थे, जिन्होंने गणनायक सुधर्मा स्वामी ने जैनेश्वरी दीक्षा ली। भगवान महावीर को निर्वाण होने के एक वर्ष पश्चात यह घटना घटी बतायी जाती है और उस समय गौतम गणधर केवली हो चुके थे, अतएव सुधमी स्वामी ही तत्कालीन प्रधान संघाचार्य
। ईसा पूर्व 519 में सुधर्मा स्वामी के निर्वाण को प्राप्त होने पर जम्बुस्वामी हो महावीर के जैन संघ के नायक भए, जिस पदं पर छह अक्तीस वर्ष, अपने निर्वाण पर्यन्त बने रहे। जम्बु-स्वामी इस परम्परा के अन्तिम कंवली थे। उनके पश्चात कोई केवल-ज्ञानी नहीं हुआ। मथुरा का चौराप्ती नामक स्थान (मतान्तर से राजगृह का विपुलाचल) उनका निर्वाण-स्थान माना जाता है। मथुरा में ही उनके शिष्य विधुच्चर तथा उसके पाँच सौ साथियों ने मुनि रूप में तपस्या करके सद्गति प्राप्त की थी, और यहाँ उनकी स्मृति में साधिक पाँच सौ स्तूप बनवाये गये थे।
उपर्युल्लिखित राजा-महाराजाओं, सामन्त-सरदारों, मन्त्रियों और सेनापतियों, धनकबर सेठों तथा विभिन्न वर्गीय महिलाओं के अतिरिक्त भी अनेक आलेखनीय स्त्री-पुरुष महावीर के भक्त अनुयायी बने थे, यथा देवानन्दा, रेवती, सुलभा और विदुषी जयन्ती-जैसी गृहिणियाँ, स्कन्धक, सोमल, अम्बड़ जैसे विद्वान ब्राह्मण पण्डित, आत्मा के प्रति सदा जागरूक रहनेयाला शंख श्रावक, मेतार्य, और हरिकेशी जैसी शुद्र । इतना ही नहीं, कम्भार सन्निवेश निवासी कृपन कुमार जैसा अत्यन्त मद्यपायी नरपशु, अर्जुनमाली-जैसा भयंकर हत्यारा विद्युच्चर, सैहिणेय, अंजनचोर, रूपसुर एवं स्वर्णसुर-जैसे कुख्यात दस्युराज, लुटेरे और मैंजे हुए चोर तथा तत्प्रभृत्ति अन्य अनेक पतित जन भगवान का उपदेशामृत पान करके अपने जीवन में क्रान्ति लाने और उसे कुमार्ग से मोड़कर सन्मार्ग में लगाने में सफल हुए थे। उस पतितपावन ने न जाने कितने पतितों को पावन कर दिया था!
उपयुक्त विवरणों में सम्भव है कि कहीं कहीं अतिशयोक्ति का आभास लगे । उनकी आधारभूत विभिन्न साहित्यिक अनश्रतियों में कहीं कहीं कछ मतभेद भी लगते हैं। श्रेठियों की धन-सम्पदा के अर्णन भी अत्युक्तिपूर्ण लग सकते हैं। किन्तु इस विषय में कोई सन्देह नहीं है कि उनमें से अधिकांश व्यक्ति सर्वथा ऐतिहासिक हैं। भारतवर्ष की धन-सम्पत्ति और उसके सेटों को समृद्धि एवं वैभव उस काल में तथा उसके भी सैकड़ों वर्ष पश्चात् तक विदेशों की ईर्ष्या एवं लब्धता के पात्र रहे हैं। किसी श्रेष्टि की हैसियत छप्पन, चौबीस, अठारह या बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को यदि बतायी गयी है और वह अक्षरशः ठीक न भी हो, तो इस तथ्य में शंका नहीं है कि अनेक राधेष्ट वैभव-सम्पन्न एवं समस्त सम्भव लौकिक सुखों का उपभोग
महावीर युग ::