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________________ wwwwwwwwww : : 1 F और सुधर्मा स्वामी ( गौतम गणधर के उत्तराधिकारी) का यह विशेष मान करते थे। उनकी बढ़ती हुई धार्मिक मनोवृत्ति देखकर माता-पिता ने विभिन्न श्रेष्ठियों की रूप-गुण-सम्पन्न चार मतान्तर से आठो कन्याओं के साथ उनकी सनी कर दी। एक दिन गुरुमुख से जल जा रहे थे तो नगर हार एकाएक गिर पड़ा और यह बाल-बाल बचे। इस घटना से इनका निर्वेद और तीव्र हुआ और इन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत से लिया। माता-पिता ने बहुत समझाया। उक्त कन्याओं को तथा उनके अभिभावकों को भी स्थिति स्पष्टं कर दी। सबका मत यहीं रहा कि इन्हें विवाह बन्धन में बाँध दिया जाए। जम्बु भी इसपर सहमत हो गये किं विवाह के दो दिन पश्चात् दीक्षा लेंगे। विवाह सम्पन्न हुआ, सुहागरात में सोलहों श्रृंगार से सुसज्जित उन अनिन्ध सुन्दरी बंधुओं ने कुमार को रिझाने और अपने निश्चय से चलायमान करने का अथक प्रयत्न किया। परस्पर पूरा शास्त्रार्थ चला जो ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ रोचक भी है। कुमार की माता भी पुत्र के सम्भाव्य वियोग और सद्यः विवाहिता पुत्र-वधुओं के तज्जनित दुःख के स्मरण से निद्रा को आँखों में समाये पुत्र के शयनकक्ष के बाहर अलिन्द में शोकमग्न बैठी थी। किन्तु वह अकेली नहीं थी। उसके अनजाने एक अन्य व्यक्ति यहाँ उपस्थित था। पोदनपुर-नरेश विद्रराज का पुत्र राजकुमार प्रथत कुमार्गगामी हो चोरी के व्यसन में पड़ गया था। शीघ्र ही चौर्यकता में वह एक विद्यासिद्ध अत्यन्त दक्ष चोर हो गया, विद्युच्चर नाम से प्रसिद्ध हुआ और पाँच सौ अन्य चोरों का सरदार बनकर बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं और धनकुबेर सेठों के यहाँ छापे मारने लगा। वही विद्युच्चर अपने सभी साथियों सहित आज श्रेष्ठि-पुत्र जम्बुकुमार के प्रासाद में घुसा था। अपने अपार धन के अतिरिक्त उक्त नववधुओं के साथ जो भारी दहेज सम्पन्न होकर उसी दिन सेठ के घर आया था, दस्तुराज के लिए अच्छा प्रतोमने था। घर के अन्य सर्व व्यक्तियों, सेवकों आदि को सी उसने बेहोश कर दिया था, किन्तु स्वयं कुमार, नववधुओं और कुमार की माता पर उसका यश न चल पाया था। वह भी अपना arrai भूलकर कक्ष के भीतर हो रही विवाद वार्ता को तन्मय होकर सुन रहा था। कुमार की माता का ध्यान उसकी ओर गया तो दह शौंक पड़ी और पूछा कि वह कौन है और यहाँ कैसे आया? विद्युच्चर ने अपना सब वृत्तान्त निष्कपट कह दिया । कुमार की वार्ता सुनकर उसे स्वयं अनुताप ही रहा था और अपने कर्म से विरक्ति हो रही थी। उसने सेठानी से कहा कि वह भी कुमार को अपने निश्चय से विरत करने का प्रयास करेगा। प्रातःकाल समीप था। कुमार का मातुल (मामा) बनकर उसने द्वार खुलवाया और कुमार की अपने विचार को स्थगित करने के लिए यथाशक्ति नाना प्रकार के तर्क और युक्तियाँ प्रस्तुत की। किन्तु विफल प्रयत्न हुआ। प्रातःकाल नित्यकर्मों से निपटकर और सबसे विदा लेकर जम्बुकुमार ने दीक्षार्थ चन की राह ली, परन्तु वह अकेले नहीं थे। पीछे-पीछे अपने पाँच सौ साथियों सहित 40 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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