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से ही बड़े चपल, चतुर और दृढ़ निश्चयी थे। इनके तीन अन्य भाई थे जो इनसे ईष्या करते और लड़ते-झगड़ते रहते थे। जो कुछ सम्पत्ति थी उसका बँटवारा हुआ
और धनाजी ने अपनी बुद्धि और सूझ-बूझ के बल पर अपनी स्थिति शनैः-शनैः राजधानी के प्रमुख धनपतियों में बना ली। किली प्रकार का कोई अभाद न था। एकदा अपने महल के एक ऊपर के खन में स्थित पुष्पवाटिका में बैठे वह स्नान कर रहे थे. पनी सभदा पास में खड़ी थी। उसे नीचे मार्ग पर जाते हुए एक साधु दिखाई पड़े और यह ध्यान आया कि उसका अत्यन्त सुकुमार भाई शालिमग मी साधु बनने जा रहा है, कैसे साधु-जीवन के कष्ट सह पाएगा। इस दुःखद विचार से उसकी आँखों में आँसू आ गये और दो-एक धन्नाजी के शरीर पर मिरे । तप्त अश्रु-बिन्दु के अनुभव से उन्होंने मुख उठाकर पत्नी की ओर देखा और कारण पूछा। समस्त वृत्तान्त सुनकर धन्नाजी बोले-बात तो ठीक है। जीवन क्षणभंगुर है, शरीर माशवान है, लक्ष्मी चंचला है और आत्म-कल्याण का मार्ग मनि-दीक्षा ही है। समय भी उसके लिए वर्तमान से अधिक उत्तम कोई नहीं होता। सुरन्त-निर्णयी और दृढ़-निश्चयी धनाजी पाली से विदा हो श्वसुरालय पहुंचे। बाहर से ही साले शालिभद्र को पुकास कि शुभकार में इतना चिलम्ब क्यों, छोड़ना है तो सब एकदम छोड़ो, चलो दोनों प्रभु की शरण में चलते हैं। और दोनों धर्मवीर चल दिये। समवसरण में उपस्थित हो मुनि-दीक्षा ले ली। इन्हीं युगल धर्मवीरों की स्मृति में आज भी जैन गृहस्थ यह मावना करते हैं कि भन्ना-शालिभद्रजी तणी ऋद्धि होय जो।"
जम्बुकुमार
महाराज श्रेणिक की राजधानी राजगृही के प्रसिद्ध सेठ ऋषभदत्त (मतान्तर से अहंदास) के इकलौते पुत्र थे। माता का नाम धारिणीदेवी या जिनदासी शा। कहीं-कहीं इनके पिता को चम्पानगर का कोट्याधीश बताया है। माता-पिता ने कुमार के लालन-पालन एवं समुचित शिक्षा-दीक्षा की उत्तम व्यवस्था प्रारम्भ से कर दी थी। अतएवं किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचत्ते जम्बुकुमार सम्भ्रान्त भद्रोधित समस्त विद्याओं और कलाओं में निपुण हो गये। वणिक-पुत्र होते हुए भी अस्त्र-शस्त्र एवं सैन्य-संचालन में भी उनकी ऐसी प्रसिद्धि हुई कि स्वयं महाराज श्रेणिक ने उस अन्यवय में ही कुमार जम्छु को एक सैनिक अभियान में भेजा। सीमान्तवर्ती एक मित्र राजा पर किसी शत्रु ने चढ़ाई की थी, और उक्त राजा ने महाराज श्रेणिक से सहायता की याचना की थी। जम्बुकुमार के कुशल नेतृत्व में यह अभियान सफल हुआ। विजयश्री प्राप्त करके वह राजगृह लौटे और महाराज द्वारा प्रशंसित एवं सम्मानित हुए। कछ ही समय पश्चात् महाराज की मृत्यु हो गयी। तदनन्तर जम्बकमार में राजकार्यों में विशेष योग नहीं दिया प्रतीत होता और अपने पिता के व्यवसाय में ही योग दिया। भगवान् का उपदेश सुनने का उन्हें अवसर मिला था
महावीर-धुग :: 39