________________
न नीचे उतरते, अपनी सुन्दरी पत्नियों के साथ भोग-विलास में मग्न रहते। एकदा दूर देश के कुछ व्यापारी सोलह बहुमूल्य रत्न कम्बल बेचने के लिए राजगृह आये । एक-एक कम्बल का मूल्य सवा लाख सोनइया (स्वर्ण मुद्रा ) था । नगर में किसी का भी, यहाँ तक कि महाराज श्रेणिक का भी साहस इतने मृत्यवान कम्बलों को खरीदने का न हुआ । हताश व्यापारी एक पनघट पर खड़े नगर के दारिद्र्य की चर्चा कर रहे थे कि वहीं शालिभद्र की कुछ सेविकाएँ पानी भर रही थीं। उन्होंने व्यापारियों से कहा कि हमारे सेठ के यहाँ जाओ तो सब माल बिक जायेगा । व्यापारियों को विश्वास न हुआ, किन्तु वे गये और जय शालिभद्र की माता सेठानी भद्रा ने बिना घूँसरा किये मुँह माँगे दामों पर वे रत्न-कम्बल खरीद लिये और तत्काल प्रत्येक के दो-दो टुकड़े करके, एक-एक टुकड़ा अपनी प्रत्येक पुत्र-वधू को पाँव पोंछने के लिए जनहित के व्यवति शालिभद्र के घर की परम्परा थी कि जिस वस्त्रादि का सेठ-वधुएँ एक बार उपयोग कर लेती थीं उसे दोबारा अपने उपयोग में न लातों और यह सेवक-सेविकाओं आदि को दे दिया जाता था। अतएव दूसरे दिन वे रत्न कम्बल भी इसी प्रकार बँट गये और उनमें से एक हवेली की मेहतरानी को मिला। वही मेहतरानी राजमहल में भी जाती थी। एक दिन वह रत्न- कम्बल ओढ़कर वहाँ चली गयी और सबकी चर्चा का विषय बन गयी। महाराज श्रेणिक ने जब पूरा वृत्तान्ते सुना तो आश्चर्यचकित हो गये और शालिभद्र को बुला भेजा । सेठानी भद्रा ने महाराज की सेवा में निवेदन भेजा कि उसका पुत्र अत्यन्त कोमल है, सूर्य का ताप व प्रकाश वह सहन नहीं कर सकता, घर के भीतर मणिदीपकों के प्रकाश में ही सदा रहता है, महाराज स्वयं उसके घर को पवित्र करने का अनुग्रह करें। महाराज गये। शालिभद्र बुलाये गये। माता ने कहा- महाराज हमारे स्वामी हैं, प्रभु हैं। इन्हें उचित सम्मानपूर्वक प्रणाम किया जाए। कुमार ने माता की आज्ञा का पालन तो किया, किन्तु मन में एक खटक हो गयी कि यह अपार वैभव और धन-सम्पत्ति किस काम की, यदि हमसे भी कोई बड़ा है और हमें उसके सामने झुकना है? विचार करते रहे और अन्त में इस निर्णय पर पहुँचे कि सब परित्याग करके वीर प्रभु की शरण में जाया जाए और मुनि दीक्षा ली जाए। माता ने बहुत समझाया, पत्नियों ने बहुतेरी अनुनय-विनय की, किन्तु शालिभद्र का निश्चय अडिग रहा। इतना संशोधन कर लिया कि धन-सम्पत्ति से तो विशेष मोह नहीं है, कभी उसका कोई अभाव अतएव कोई मूल्य ही नहीं समझा, किन्तु प्रिय पलियों में जो प्रेम और आसक्ति है वही सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है, और इसका उपाय यह है कि एक-एक दिन एक-एक करके उक्त पलियों से आसक्ति हटायी जाए।
उधर उनके बहनोई धन्नाजी भी बड़े धनाढ्य थे और अपनी पत्नी के साथ सांसारिक सुखों और वैभव का उपभोग करते थे। प्रारम्भ में इनके पिता अच्छे धनी थे, किन्तु व्यापार में घाटा आने से स्थिति दुर्बल हो गयी थी। धन्नाजी बाल्यावस्था
3 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं