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वैष्णव- मन्दिर बनवाना शुरू कर दिया। यात्रा से लौटने पर सेठजी ने सब समाचार जानकर भी कुछ न कहा और अपने भाइयों की बात रखने के लिए मन्दिर का कार्य अपनी देखरे में पूरा पर उसके तथा द्वारकाधीश के मन्दिर के रखरखाव के लिए जागीरें भी लगा दीं। उनके सुपुत्र एवं उत्तराधिकारी सेठ रघुनाथदास भी प्रतिभासम्पन्न और जैनधर्म के परम श्रद्धालु थे। चौरासी के मन्दिर में भगवान् अजितनाथ की विशाल प्रतिमा इन्होंने ग्वालियर से लाकर प्रतिष्ठित की थी। चौरासी क्षेत्र का अष्ट-दिवसीय कार्तिकी मेला और रथोत्सव भी इन्होंने ही प्रारम्भ किया था |
राजा लक्ष्मणदास - मथुरा के सेठ रघुनाथदास की निसन्तान मृत्यु होने पर उनके उत्तराधिकारी हुए। यह उनके चचा राधाकिशन के पुत्र थे और रघुनाथदास की गोद हो गये थे। इनका जन्म 1853 ई. में हुआ था। धर्म के विषय में इन्होंने अपने जन्म पिता राधाकिशन के बजाय धर्मपिता सेठ रघुनाथदास का अनुकरण किया। अपने समय में आप जैन समाज के प्रमुख नेता थे। इन्होंने 1884 ई. में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा की स्थापना की। मथुरा में उसके कई अधिवेशन किये और उक्त अवसरों एवं कार्तिकी मेले पर समस्त आगत अतिथियों का वह प्रेमपूर्ण आतिथ्य करते थे। बड़े साधर्मीवत्सल थे। इनकी प्रेरणा से महासभा ने चौरासी क्षेत्र पर अपना महाविद्यालय भी स्थापित किया था। अँगरेज सरकार ने इन्हें 'राजा' और सी. आई.ई. की उपाधियों से विभूषित किया था। स्वयं वायसराय लार्ड कर्जन ने एक बार मथुरा आकर इनका आतिथ्य ग्रहण किया था। जयपुर, भरतपुर, ग्वालियर, धौलपुर, रामपुर आदि रियासतों के नरेशों से इनके मैत्री सम्बन्ध थे । जनसामान्य में भी लोकप्रिय थे, क्योंकि बिना किसी धार्मिक या जातीय भेदभाव के सभी जरूरतमन्दों की वह उदारतापूर्वक सहायता करते थे। बड़े राज्योचित ठाटबाट से रहते थे। आन-बान, मान-प्रतिष्ठा पूर्वजों से कुछ अधिक ही थी, किन्तु अनेक कारणों से जिनमें सरकार की नीति भी थी, इनकी आर्थिक स्थिति कुछ खोखली हो चली थी, बल्कि कलकत्ते की गद्दी के मुनीम की मूर्खता के कारण तो इनका व्यवसाय प्रायः फेल ही हो गया। किन्तु राजा साहब ने अपने जीते जी हो सभी देनदारों का पैसा-पैसा चुकता कर दिया। फिर भी लाखों की सम्पत्ति बच रही। मात्र 47 वर्ष की आयु में 1900 ई. में राजा लक्ष्मणदास का निधन हुआ । इनके पुत्र सेठ द्वारकादास और दामोदरदास थे। द्वारिकादास की भी अल्पायु में मृत्यु हो गयी थी तो उनके उत्तराधिकारी छोटे भाई दामोदरदास हुए । उनके पुत्र सेठ मथुरादास थे, किन्तु द्वारिकादास की सेठानी ने गोपालदास को अपना दत्तक पुत्र बनाया जिनके पुत्र भगवानदास हुए। मथुरा के सेठ वराने का पतन हो चुका था।
राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द-प्रसिद्ध जगत्सेट के वंशज डालचन्द और उनकी विदुषी भार्या बोबी रतनकुँवर के पौत्र और उत्तमचन्द के सुपुत्र थे। इनके
378 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ