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पितामह के समय से वाराणसी ही इस परिवार का निवास स्थान था। शिवप्रसाद बड़े मेधावी, सुशिक्षित, बहुभाषाविज्ञ, विविध विषयपटु एवं राजमान्य महानुभाव थे। काशीनरेश ईश्वरीनारायणसिंह, अवध के नवाब वाजिदअलीशाह आदि कई तत्कालीन नरेश इनका बड़ा मान करते थे। वह वायसराय की लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य नियुक्त हुए और 1874 ई. में 'राजा' एवं सी. आई.ई. ( सितारेहिन्द ) उपाधियों से विभूषित किये गये | पश्चिमोत्तर प्रान्त (वर्तमान उत्तरप्रदेश) में राजकीय शिक्षा विभाग की स्थापना होने पर वह पूरे प्रान्त के लिए सर्वप्रथम विद्यालय निरीक्षक (इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल्स) नियुक्त हुए। प्रान्त के प्रारम्भिक गजेटियरों के निर्माण में अँगरेज अधिकारियों ने इनसे सहायता ली थी और जर्नल कनिंघम जैसे पुरातत्व सर्वेक्षक इन्हें अपना 'मेडल होस्त' कहते हरिदा आदि कई पुस्तकें भी इन्होंने लिखीं । अदालतों में हिन्दी का प्रवेश कराना, स्कूलों में हिन्दी शिक्षा की उचित व्यवस्था करना, हिन्दी में छात्रोपयोगी एवं लोकोपयोगी पुस्तकों का निर्माण करना व कराना इत्यादि अपने कार्यों के कारण वह आधुनिक काल में हिन्दी प्रचार के सर्वप्रथम पुरस्कर्ता थे। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उन्हें अपना गुरु मानते थे ।
राय बद्रीदास-मूलतः लखनऊ के प्रसिद्ध जौहरियों के श्रीमाल वंश में उत्पन्न हुए थे। लखनऊ की नवाबी की डाँवाडोल स्थिति और अँगरेजों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर 1853 ई. के लगभग यह सपरिवार कलकत्ता चले गये और वहाँ कुछ ही वर्षों में अपनी ईमानदारी, साख, व्यवसाय- पटुता एवं अध्यवसाय के बल पर उस महानगरी के प्रमुख जौहरियों में गिने जाने लगे। सन् 1871 ई. में वायसराय लाई मेयो ने इन्हें अपना 'मुकीम नियुक्त किया और यह 'रायबहादुर' उपाधि से विभूषित किये गये। यह और इनका परिवार बड़ा धार्मिक था । यह बहुधा कलकत्ता की दादाबाड़ी में ठहरे यतियों के दर्शनार्थ जाया करते थे। उस स्थान के निकट ही एक बड़ा तालाब था जिसमें लोग मछलियों का शिकार किया करते थे। यह देखकर दयाधर्म के पालक इन श्रावकों को बड़ी ग्लानि होती थी। एक दिन इनकी धर्मप्राण जननी ने इनसे कहा कि यह जीव-हिंसा बन्द होनी चाहिए, और बस इन्होंने वह पूरा क्षेत्र मुँह माँगे दाम देकर खरीद लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने उस स्थान की भरायी कराके वहाँ एक सुन्दर विशाल उद्यान लगाया जिसमें वह भव्य कलापूर्ण एवं मनोरम जिनमन्दिर बनाया जो मार्डन टेम्पल' (उद्यान मन्दिर) के नाम से प्रसिद्ध है और तभी से देश-विदेश के पर्यटकों के लिए दर्शनीय आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। मन्दिर का निर्माण 1867 ई. में पूर्ण हुआ और स्वगुरु कल्याणसूरि के उपदेश से उन्होंने उसमें शीतलनाथ भगवान् की उपयुक्त प्रतिमा प्रतिष्ठित करने का निश्चय किया। ऐसी प्रतिमा की खोज में राय बद्रीदास ने दूर-दूर की यात्रा की। अन्ततः एक चमत्कार के परिणामस्वरूप आगरा में एक स्थान की खुदाई कराने पर एक भूमिस्थ प्राचीन देहरे में यह प्रतिमा प्राप्त हुई। हर्षविभोर हो वह उस प्रतिमा को
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