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जयपुर राज्य के मालपुरा गाँव में जिनदास नामक एक अति साधारण स्थिति के खण्डेलवाल श्रावक रहते थे। फतहचन्द और मनीराम उनके दो पुत्र थे जो जीविका की खोज में जयपुर चले गये। मनीराम वहाँ भी न टिके और परदेश के लिए निकल पड़े। मार्ग में एक धर्मशाला में एक साधारण से लगनेवाले सज्जन को अत्यन्त रुग्ण अवस्था में छटपटाते देखकर इन्होंने मानवता के नाते उनकी सेवा-शुश्रूषा और Tere परिचय करके उन्हें अकाल-मृत्यु के मुख से बचा लिया। वह सज्जन वास्तव में ग्वालियर के सिन्धिया नरेश के राज्यमान्य गुजराती सेठ राधामोहन पारीख थे। उनके स्वार्थी नोकर-चाकर उनकी दुरवस्था में उन्हें यहाँ छोड़ और उनका सब मालमता लेकर चम्पत हो गये थे। घारीखजी मनीराम से अत्यन्त उपकृत एवं प्रसन्न हो और उनका वृत्तान्त जान उन्हें अपने साथ ग्वालियर लिया ले गये और उन्हें कपड़े के व्यवसाय में लगा दिया। सिन्धिया राजा की महारानी बैजाबाई के पारीखजी विश्वस्त कृपापात्र और निजी जौहरी थे। उसने सेना द्वारा उज्जैन की लूट में प्राप्त विपुल द्रव्य इन्हें देकर मथुरा में मन्दिर बनवाने के लिए कहा, अतएव पारीखजी मनीराम को साथ लेकर मथुरा आ गये और वहीं बसकर साहूकारे का कारबार शुरू कर दिया और सब भार मनीराम पर डालकर स्वयं भगवद्भजन में लग गये। यह वैष्णव थे, अतएव महारानी को और उनकी इच्छानुसार रानी द्वारा प्रदत्त द्रव्य से सेट मनीराम ने मथुरा में द्वारकाधीश का सुप्रसिद्ध मन्दिर बनवाया । श्रौरासी पर जम्बूस्वामी का मन्दिर भी इन्होंने बनवाया था, और 1825 ई. में छहढाला' के कर्ता पण्डित दौलतराम को अपने पास सुलाकर रखा था। पारीखजी निस्सन्तान थे, अतएव उन्होंने सेठ मनीराम के ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्द को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सेठ लक्ष्मीचन्द बड़े प्रतापी, प्रभावशाली, उदार, धार्मिक और व्यवसायचतुर थे। उनके समय में मथुरा के सेट घराने का वैभव और प्रतिष्ठा अपने चरमोत्कर्ष पर थे। दूर-दूर उनकी ख्याति थी और उनकी हुण्डी सर्वत्र निस्संकोच सकारी जाती है। इस प्रदेश में अँगरेज कम्पनी का शासन जम चुका था और उसके सभी छोटे-बड़े अधिकारी तेजी का बड़ा सम्मान करते थे। उनके बलपौरुष, साहस, निरभिमानता एवं आन-ब की कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। सन् 1857 ई. के विप्लव में सेठजी ने एक ओर अंगरेजों की रक्षा और सहायता की तो दूसरी ओर विप्लवियों और अंगरेजों के उत्पीड़न से मथुरा की जनता की भी भरसक रक्षा की। उस काल में कुछ समय तक तो मथुरा नगर और आसपास के क्षेत्र पर सेठों का ही एकछत्र शासन रहा । शान्ति स्थापित होने पर अँगरेज़ सरकार ने भी उनकी सराहना की और जनता में भी वह और अधिक लोकप्रिय हो गये। सेठ लक्ष्मीचन्द स्वयं जैनधर्म के परम श्रद्धालु थे, किन्तु उनके भाई राधाकिशन और गोविन्ददास वैष्णव गुरुओं के भक्त थे और उन्होंने वृन्दावन निवासी रंगाचार्य की प्रेरणा से, जब सेठ लक्ष्मीचन्द विशाल संघ लेकर तीर्थयात्रा के लिए गये हुए थे, वृन्दावन में रंगजी का अति विशाल
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