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पर प्रतिष्टित रहे। जयपुर का संगमरमर में कराई शिल्प के लिए विख्यात सिरमारियों का जिनमन्दिर इन्हीं का बनवाया हुआ है। इस मन्दिर का शिलान्यास स्वयं जयपुर नरेश माधोसिंह ने 1756 ई. में किया था और राज्य के योगदान के रूप में POKAR रुपये उसके निर्माण के लिए भी प्रदान किये थे।
दौलतराम कासलीवाल-जयपुर राज्य के बेसर्वा भगर के निवासी और साह आनन्दराम कासलीवाल के पुत्र थे । यह उच्चशिक्षित, विधाव्यसनी, भारी साहित्यकार, साथ ही नीतिफ्टु और राज्यकार्यकुशल थे। महाराज सवाई जयसिंह ने 1720 ई. के कुछ पूर्व ही उन्हें राज्यसेवा में नियुक्त कर लिया प्रतीत होता है और किसी राज्य कार्य से ही उन्हें आगरा भेजा था, जहाँ इन्हें अबरा के भूधरमल्ल, हेमराज, ऋषभदास आदि जैन विद्वानों के सत्संग का लाभ भी मिला और वहीं उसी वर्ष इन्होंने 'पुण्यालय कथाकोश' की रचना की थी। तदनन्तर कई वर्ष यह युवराज ईश्वरीसिंह के अभिभावक एवं खासदीवान (मन्त्री या सचिव) तथा जयपुर के वकील के रूप में उसके साथ उदयपुर के राणा जगतसिंह द्वितीय के दरबार में रहे। वहीं उन्होंने 1738 ई. में 'क्रियाकोष' की रचना की थी। बीच-बीच में जयपुर भी आते रहते थे। महाराज ईश्वरीसिंह के राज्यकाल में यह उसके एक दीवान के रूप में जयपुर में ही अधिक रहे प्रतीत होते हैं। उसी काल में उनके 'आदिपुराण', 'पद्मपुराण', 'हरिवंशपुराण' आदि विशाल ग्रन्यों की रचना हुई लगती है। राज्यकार्य से जितना समय बचता था वह साहित्य साधना में ही लगाते थे। ईश्वरीसिंह के अन्तिम वर्षों और तदनन्तर माधोसिंह के राज्यकाल में कई वर्ष यह जयपुर राज्य के प्रतिनिधि (वकील) के रूप में उदयपुर दरबार में रहे, जहाँ सेट बेलाजी की प्रेरणा से इन्होंने "वसुनन्दि श्रावकाचार' की भाषा-टीका लिखी थी, जिसकी प्रथम प्रतिया 1751 ई. में उदयपुर में ही वहाँ के सेठ कालुवालाल और सेट सुखजी की विदुषी पलियाँ मोठीबाई एवं राजनाई ने अपने हाथ से लिखी थीं। राजा पृथ्वीराज सिंह के समय में 1770 ई. के लगभग राज्य की साधिक 50 वर्ष निरन्तर सेवा करने के पश्यातू, इन्होंने राज्यसेवा से अवकाश ले लिया लगता है। इनकी अन्तिम रचना 1772 ई. की है, जिसके कुछ समय पश्चात् इनका स्वर्गवास हो गया लगता है। मन्त्रीवर दौलतराम कासलीवाल का अपने समकालीन जयपुर के दीवानों के साथ प्रायः सौहार्द रहा, विशेषकर धर्मप्रेमी दीवान रतनचन्द्र साह (175668 ई.) का तो अपने ग्रन्थों में उल्लेख भी किया है। एक धर्मज्ञ विद्वान के रूप में दौलतराम पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी का बड़ा आदर करते थे और माई रायमल्ल तो उनके कई ग्रन्थों के प्रणयन में प्रेरक रहे थे। राजा और प्रजा में उनकी प्रतिष्ठा थी ही, राज-परिवार में आते-जाते थे और 'पण्डितराव' कहलासे थे। इस सबके अतिरिक्त हिन्दी गद्य के विकास में पण्डित दौलतराम कासलीवाल का अभूतपूर्व योगदान है।
उत्तर मध्यकाल के राजपूत सम्य :: 341