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________________ जसवन्तसिंह से सहायता माँगी और नैणसी को भेजा गया जिसने रामचन्द्र को मार भगाया और सबलसिंह को जैसलमेर का राजा बना दिया। जसवन्तसिंह का दीवान मियाँ फ़रासत या जिसके स्थान में 1657 ई. में महाराज में नैणसी को अपना दीवान (प्रधान) नियुक्त किया पर उसने सजी उसका भाई मेहता सुन्दरदास भी 1654 ई. से 1666 ई. तक महाराज का तन-दीवान ( वैयक्तिक सचिव या प्राइवेट सेक्रेटरी) रहा। उसे पंचोली बलभद्र के स्थान पर नियुक्त किया था। सन् 1656 ई. में महाराज ने सिंघलबाध के विरुद्ध सेना की दो टुकड़ियाँ भेजीं, जिनमें से एक का नेता सुन्दरदास था और वह युद्ध में विजयी होकर लौटा था। जैसलमेर के रावल सबलसिंह ने औरंगज़ेब और जसवन्तसिंह की अनबन का लाभ उठाकर 1658 ई. में राज्य में लूटपाट मचायी तब भी मैगसी को ही जैसलमेर पर चढ़ाई करने के लिए भेजा गया। उसने रावल और उसके पुत्र को खदेड़कर अपने किले में बन्द होने पर विवश कर दिया और उसके 25 गाँव जलाकर और उसका एक दुर्ग लूटकर चला आया। उज्जैन के निकट औरंगजेब के साथ जसवन्तसिंह का इतिहासप्रसिद्ध युद्ध उसी समय के लगभग हुआ था। उसमें नैणसी के पुत्र करमसी ने वीरतापूर्वक लड़कर अनेक घाव खाये थे । अन्ततः औरंगजेब के सम्राट् बनने पर जसवन्तसिंह उसके पक्ष में हो गया और 1663 ई. में उसकी ओर से महाराष्ट्र में मराठा राजा शिवाजी के प्रसिद्ध दुर्ग कुँडाँवा की विजय करने के लिए भेजा गया। दुर्ग पर आक्रमण करनेवालों में सुन्दरदास भी था। नैणसी महाराज के साथ ही था। मुगलों के लिए मराठों के विरुद्ध छिड़े अभियान का संचालन 1666 ई. में जसवन्तसिंह औरंगाबाद से कर रहा था। किसी कारण से वह नैणसी और सुन्दरदास से रुष्ट हो गया और उन दोनों भाइयों को कैद में डाल दिया। कहा जाता है कि महाराज की अप्रसन्नता का कारण इन दोनों के द्वारा अपने सम्बन्धियों को उच्च पदों पर नियुक्त करके राज्य में मनमानी करना था । वास्तविक कारण तो इन वीरों के विद्वेषियों द्वारा इनके विरुद्ध महाराज के कान भरना था। दो वर्ष बाद उन दोनों पर एक लाख रुपया दण्ड (जुर्माना लगाकर उन्हें छोड़ दिया गया, किन्तु उन स्वाभिमानी वीरों ने ताँबे का एक टका भी देना स्वीकार नहीं किया । अतएव अगले वर्ष (1669 ई. में) उन्हें फिर बन्दीखाने में डाल दिया गया और उनके साथ अत्यन्त कठोरता का व्यवहार किया गया, किन्तु वे तब भी न झुके। दण्ड- वसूली का अन्य उपाय न देखकर महाराज ने क़ैदी के रूप में उन्हें कड़े पहरे में जोधपुर रवाना कर दिया। मार्ग में असह्य यन्त्रणाएँ उन्हें दी गयीं। पीढ़ी दर पीढ़ी से होती आयी अपने पूर्वजों की और स्वयं अपनी व अपने पूरे परिवार की एकनिष्ठ स्वामिभक्ति और राज्यसेवा का निरंकुश शासक द्वारा यह पुरस्कार पाकर उन दोनों वीरों को जीवन से ग्लानि हो गयी और मार्ग में फूलमरी नामक ग्राम में 1670 ई. की भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी (पर्युषणारम्भ) के दिन दोनों भाइयों ने एक साथ पेट में कटार भोंककर 330 : प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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