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इहलीला समाप्त कर दी। ये दोनों प्रबुद्ध, सुशिक्षित और सुकवि भी थे। मरने के पूर्व दोनों ने एक-एक दोहा कहा --
नैणसी - दहाड़ी जितरे देव, दहाड़े बिन नहीं देव है।
सुरनर करता आवे सुन्दरदास - नर पै नर आवत नहीं, आवत हैं धनपास सौ दिन केम पछाड़िये, कहते सुन्दरदात |
इस घटना से महाराज जसवन्तसिंह और उसके राज्य की क्षति तो हुई ही, उसकी बदनामी भी सर्वत्र बहुत हुई। समाचार पाते ही उसे पश्चात्ताप भी हुआ और उसने नैणसी के पुत्र करमसी तथा अन्य परिजनों को क़ैद से मुक्त कर दिया, किन्तु इस भयंकर अत्याचार के पश्चात् उन्होंने जोधपुर राज्य में रहना उचित नहीं समझा और यज्ञसिंह के पौत्र, जसवन्तसिंह के भतीजे और वीर राठौर अमरसिंह के पुत्र नागौरनरेश रामसिंह के आश्रय में चले गये। मूता नैणसी अत्यन्त कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भारी युद्धवीर और सैन्यसंचालक ही नहीं था, वह सुकवि, बड़ा विद्यानुरागी तथा भारी इतिहासकार भी था । 'मूता नैणसी की ख्यात' नाम से प्रसिद्ध उसका महाग्रन्थ सम्पूर्ण राजस्थान का उत्तम इतिहास और जोधपुर राज्य की विस्तृत डायरेक्टरी है, जिसके कारण उसे राजस्थान का अबुलफ़जल ( आईने अकबरी का लेखक) कहा जाता है। ग्रन्थ का 'ख्यात' (इतिहास) भाग बड़े आकार में मुद्रित एक हजार पृष्ठ के लगभग है और उसका 'सर्वसंग्रह' (जोधपुर राज्य का गजेटियर) भाग भी पाँच सौ पृष्ठ के लगभग है। राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास के लिए नैणसी का मान्य अद्वितीय साधन स्रोत है। जोधपुर के कविराज मुरारीदीन ने उसे देखकर 1902 ई. में लिखा था---
मन्त्री मरुधर तणों नैणसी मैहतो नाँमी। ख्यात रत्न एकठा कियाकर खाँत अमाँगी |
मूता नैणसी के वंशज - नैणसी के तीन पुत्र थे- करमसी, बैरसी और समरसी। वे सुन्दरदास के पुत्रों और समस्त परिवार को लेकर नागौर में रामसिंह की सेवा में 1670 ई. में हो चले गये थे। वहाँ रामसिंह ने अपने ठिकाने ( राज्य ) का सारा कार्य करमसी को सौंप दिया था। वीर करमसी ने अपने पिता और चाचा के साथ तथा स्वतन्त्र भी जसवन्तसिंह और उसके राज्य की पर्याप्त सेवा की थी।
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यह शासनकुशल और वीर तो था ही, किन्तु माग्य यहाँ भी विपरीत हुआ । नागौर नरेश रामसिंह की 1675 ई. में दक्षिण देशस्थ शोलापुर में अचानक मृत्यु हो गयी। राजा के मुतसद्दियों ने साथ के गुजराती वैद्य से पूछा कि यह कैसे हो गया तो उसने अपनी भाषा में कहा, 'करमा नो दोष छे', जिसका अर्थ लगाया गया कि मन्त्री करमसी ने विष देकर राजा की हत्या कर दी और उसे तुरन्त वहीं जीवित दीवार में चुनवाकर मार दिया गया। साथ ही नागौर आज्ञा भेज दी गयी कि उसके पूरे
उत्तर मध्यकाल के राजपूत राज्य : 331