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प्राप्त की थी। अपनी तुरपुर जागीर के कारण सरुवरया भी कहलाते थे। संघको लेजाजी के पुत्र संघवी गजूजी थे और उनके संधी राजाजी थे जिनकी भायां रयणदे से उनके चार पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे संघयी दयालदास थे। सूर्यदे और पाटमदे नाम की उनकी दो पलियाँ थीं और संघवी साँवलदास नामक पुत्र था, जिनकी भाय मृगादे थी। प्रारम्भ में दयालदास उदयपुर के एक ब्राह्मण पुरोहित के यहाँ नौकर थे। राणा के विरुद्ध उसके परिवार के ही कतिपय लोगों द्वारा किये गये एक कूट षड्यन्त्र का विस्फोट करने के कारण राणा दयालदास से अत्यन्त प्रसम्म हुए और उसे अपनी सेना में रख लिया। शनैः-शनैः सुम्मति करके वह राणा के कृपापात्र एवं विश्वस्त महाप्रधान हो गये। बड़ौर के निकटस्थ छाणी ग्राम के जिनमन्दिर की एक पाषाणमयी विशाल जिनप्रतिमा पर अंकित लेख के अनुसार उसकी प्रतिष्ठा इन्हीं संघवी दयालदास ने 1677 ई. में करायी थी। उदयपुर में राजसमन्द की पाल के निकट उन्होंने संगमरमर का विशाल नौ मंजिला चतुर्मुख आदिनाथ जिनालय बनवाया था, जो एक पूर किल-जैसा लगता है और जिसके निर्माण में एक पैसा कम दस लाख रुपये लगे बताये जाते हैं। उनकी प्रेरणा पर राणा राजसिंह ने 169 ई. में एक आज्ञापत्र भी जारी किया था, जिसके अनुसार प्राचीनकाल से जैनों के मन्दिरों एवं अन्य धर्मस्थानों को जो यह अधिकार प्राप्त है कि उनकी सीमा में कोई भी व्यक्ति जीवयध न करे, वह मान्य किया गया-नर या मादा कोई भी पशु यदि वध के लिए उक्त स्थानों के समीप से ले जाया जाएगा तो वह अमर हो जाएगा अर्थात् मारा नहीं जाएगा-राजद्रोही, लुटेरे या कारागृह से भामे हुए महाअपराधी भी यदि इनके उपासरे में शरण लेते हैं तो राज्य कर्मचारी उन्हें नहीं पकड़ सकेंगे-फसल में (धी, कराना की मुट्ठी, दान की हुई भूमि और उनके उपासरे यथावत् कायम रहेंगे-यह फरमान यति मान की प्रार्थना पर जारी किया गया । उक्त पतिजी को कुछ भूमिदान भी दिया गया था। आज्ञापत्र महाराणा राजसिंह की ओर से पेवाड़ देश के दस हजार ग्रामों के सरदारों, मन्त्रियों, पटेलों को सम्बोधित था और शाह दयाल (दास) पन्त्री द्वारा हस्ताक्षरित था। राया राजसिंह की मृत्यु के पश्चात् दयालदास राणा जयसिंह के प्रधान मन्त्री रहे और इस समय भी उन्होंने मुग़लों के साथ एक भयंकर बुद्ध किया था। दयालदास के पुत्र संघवी साँवलदास भी राज्य में किसी उच्च पद पर प्रतिष्ठित रहे प्रतीत होते हैं।
कोठारी भीमसी-राणा संग्रामसिंह द्वितीय के समय में जब रणबाजखों मेवाती के नेतृत्व में मुगल सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तो उसका प्रतिरोध करने के लिए राणा ने वेंगु के सक्त देवीसिंह मेघायत आदि सरदारों को खुला भेजा। रावत कारणवश स्मयं न आ सका और उसने अपने कोठारी भीमसी महाजन की अध्यक्षता में अपनी सेना भेज दी। राजपूत सरदारों ने उपहास किया, 'कोठारीजी, या आटा नहीं तौलना है। कोटारीने उत्सर दिया, 'मैं दोनों हाथों से आदा लोलुंगा तब देखना।'
326 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ