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के साथ युवराज कर्णसिंह गया था। जीवाशाह भी उस समय अपने 'युवराज के साथ अजमेर गया था । अमसिंह के पश्चात् कसिंह राणा हुआ और उसके राज्यकाल में अपनी मृत्यु पर्यन्त जीवाशाह ही दोवान बना रहा।
अक्षयराज-- भामाशाह का पौत्र और जीवाशाह का पुत्र अक्षयराज अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त कर्णसिंह का और तदनन्तर उसके उत्तराधिकारी राणा जगतसिंह का दीवान रहा | मन्त्रित्व के अतिरिक्त वह कुशल सेनानायक भी था। दूंगरपुर के रावल पहले मेवाड़ के अधीन थे, फिर मुग़ल बादशाह के अधीन हो गये तो राणा की सत्ता को उन्होंने अमान्य कर दिया। राणा जगतसिंह ने प्रधान अक्षयराज की राबल के विरुद्ध भेजा। अक्षयराज ने उसका सफलतापूर्वक दमन किया और उसे पहाड़ों पर भागकर शरण लेने पर बाध्य किया। अक्षयराज के पश्चात् इस वंश का कोई व्यक्ति उस पद पर रहा या नहीं, पता नहीं चलता।
संघवी दयालदास-मपाल सम्राट औरंगजेब की हिन्दू विरोधी असहिष्णु नीति, जजिया कर आशंदेमा, मन्दिसूर्ति को चिकित्याचारों से हिन्दू जनता त्रस्त हो उठी थी। जोधपुर के महाराज जसवन्तसिंह की विधा एवं पुत्रों के साथ किये गये अन्यायपूर्ण बरताव ने भी राजपूतों को भड़का दिया। मेवाड़ के वीर राणा राजसिंह स्वयं को हिन्दुओं और हिन्दु धर्म का संरक्षक समझते थे। उन्होंने औरंगजेब को कड़ा पत्र लिखा कि वह उपयुक्त हिन्दू विरोधी कार्य न करे। सम्राट् ने कुपित होकर मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए ससैन्य अजमेर में डेरा डान । राणा के नेतृत्व में राजस्थान के अधिकांश राजा उसका मुकाबला करने के लिए एकत्र हो गये। अन्ततः विवश होकर 1681 ई. में उसे राजपूतों से सन्धि करनी पड़ी। इस काल में राजा राजसिंह का प्रधान मन्त्री संघवी दयालदास नामक जैन वीर था जो भारी योद्धा और कुशल सैन्यसंचालक भी धा। कर्नल टाड के कथनानुसार राणा के इस कार्यचतुर एवं अत्यन्त साहसी दीवान दयालदास के हृदय में मुगलों से बदला लेने की अग्नि सदा प्रज्वलित रहती थी। उसने शीघ्रगामी घुड़सवार सेना लेकर नर्मदा से बेतवा तक फैले हुए मालवा के सूबे को लूट लिया। उसके प्रचण्ड मुजयल के सम्मुख कोई नहीं ठहर पाता था 1 सारंगपुर, देवास, सिरोंज, माँडू, उज्जैन, चन्देरी आदि नपरों को लूटा और वहाँ स्थित मुग़ल सेना को मार भगाया। उसने मुसलमानों के मुल्ला, मौलवियों, क्राज़ियों, ऋरान और मस्जिदों को भी नहीं बदक्षा । मुसलमानों में त्राहि-त्राहि मच गयी। लूट का सारा धन उसने अपने स्वामी राणा के कोष में दे दिया। उसने अपने राजकुमार जयसिंह के साथ चित्तौड़ के निकट शाहजादा आजम की सेना के साथ भयंकर युद्ध करके उसे रणथम्भौर की ओर माग जाने पर विवश किया। इस युद्ध में भी मुग़लों के धन और जन की भारी क्षति हुई। दयालदास के पूर्वज मूलतः सीसौदिया राजपूत थे और जैनधर्म अंगीकार करके ओसवालों में सम्मिलित हुए थे तथा अपने धर्मकार्यों के कारण उन्होंने संघवी उपाधि
उत्तर पध्यकाल के राजयूत राज्य :: 925