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करके 25 लाख रुपये और 20 हज़ार अशरफियों दण्डस्वरूप प्राप्त की और लाकर राणा को समर्पित कर दीं। राज्य के गाँव-गाँव में प्राणों का संचार कर दिया, सैनिकों को जुटाना, युद्ध-सामग्री की व्यवस्था और युद्धों में भी भाग लेना, हर प्रकार देश के उद्धार को सफल बनाने में भामाशाह ने पूर्ण योग दिया। दिवेर आदि के शाही
थानों पर आक्रमण करने में भी कह राजपूतों के साथ था। इन गावों में भामाशाह क
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की वीरता देखने का भी राणा को पर्याप्त अवसर मिला और वह उससे अत्यन्त प्रसन्न हुआ। इन प्रयत्नों का परिणाम यह हुआ कि मेवाड़ी वीरों की रणभेरी के नाद से मुग़ल सैनिकों के पैर उखड़ने लगे और 1586 ई. तक दस वर्ष के भीतर ही चित्तौड़ और माँडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर राणा का पुनः अधिकार हो गया। अकबर ने भी उन्हें फिर नहीं छेड़ा। अपनी इस अपूर्व एवं उदार सहायता के कारण भामाशाह मेवाड़ का उद्धारकर्ता कहलाया । राणा प्रताप तो उसका बड़ा सम्मान करते ही थे। उसे लोकप्रतिष्ठा भी प्रभूत प्राप्त हुई। तभी से राजाज्ञा द्वारा राजधानी उदयपुर की पंच-पंचायत, बावनी (जाति भोज) चौके का भोजन, सिंहपूजा आदि विशेष उपलक्ष्यों में भामाशाह के मुख्य वंशधर को ही सर्वप्रथम तिलक किया जाता है और मान दिया जाता है। जब-जब इस प्रथा का भंग हुआ, राजाज्ञा से उसे पुनः स्थापित किया जाता रहा, यथा--1855 ई. के राजा सरूपसिंह के और 1895 ई. के राणा फतहसिंह के आज्ञापत्र मेवाड़ की प्रतिष्ठा के इस पुनरुत्थापक, स्वार्थत्यागी, वौरश्रेष्ठ एवं मन्त्रीप्रवर भामाशाह का जन्म सोमवार 28 जून, 1547 ई. को हुआ था और निधन लगभग 52 वर्ष की आयु में 27 जनवरी 1600 ई. में हुआ। मृत्यु के एक दिन पूर्व उसने अपने हाथ लिखी एक बड़ी अपनी धर्मपत्नी की देकर कहा कि इसमें मेवाड़ के राज्यकोष का सब ब्यौरा है, जब-जब मेवाड़ का कोई राणा कष्ट में हो, इस द्रव्य से उसकी सहायता की जाए। इस प्रकार इस नररत्न ने एक सच्चे जैन के उपयुक्त आचरण द्वारा स्वधर्म, स्वसमाज एवं स्वदेश को गौरवान्वित किया। उदयपुर में भामाशाह की समाधि अभी भी विद्यमान है ।
जीवाशाह - भामाशाह का सुयोग्य पुत्र था। राणा प्रताप के पुत्र एवं उत्तराधिकारी राणा अमरसिंह के राज्यकाल में भी तीन वर्ष मामाशाह जीवित रहा और पूर्ववत् राज्य का प्रधान मन्त्री बना रहा। उसकी मृत्यु के उपरान्त जीवाशाह प्रधानमन्त्री हुआ। वह भी अपनी कुल परम्परा के अनुसार राज्यभक्त, स्वामीभक्त एवं अपने कार्य में सुदक्ष था। राणा अमरसिंह आलसी, विलासी और खर्चीला था । मुग़लों के साथ भी अपने वीर पिता की आन को निभाने के लिए वह 1614 ई. पर्यन्त युद्ध करता रहा। अपनी माता के पास सुरक्षित पैतृक बही में लिखे कोष से ही जीवाशाह राणा का और उसके युद्धों का खर्च चलाता रहा। जब 1614 ई. में शाहजादा खुर्रम ने राणा को सम्राट् जहाँगीर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया तो अजमेर में सम्राट् के सम्मुख उपस्थित होने के लिए शाहजादे
324 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिताएँ