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उत्तर मध्यकाल के राजपूत राज्य
इस काल में राजस्थान में मेवाड़ (उदयपुर), जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, बूंदी आदि प्रमुख राजपूत राज्य थे। इन राज्यों के नरेश बहुधा उदार और धर्मसहिष्णु थे और उनके द्वारा शासित क्षेत्रों में जैनों की स्थिति अपेक्षाकृत श्रेष्ठकर थी। उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता भी कहीं अधिक थी। जैन मुनियों, यतियों और विद्वानों का राजागण आदर करते थे। मन्दिर आदि निर्माण करने और धमोत्सव करने की मी जैनों को खुली छूट यो । मुख्यतया साहुकारी, महाजनी, व्यापार और व्यवसाय जैनों की वृत्ति थी और इन सब क्षेत्रों में प्राय: प्रत्येक राज्य में उनकी प्रधानता थी। इसके अतिरिक्त उक्त राज्यों के मन्त्री, दीवान, भण्डारी, कोठारी आदि तथा अन्य उच्च पदों पर अनेक अनी नियुक्त होते थे। अनेक जैनी तो भारी युद्धवीर, सेनानायक, दुर्गपाल तथा प्रान्तीय, प्रादेशिक या स्थानीय शासक भी हुए।
मेवाड़राज्य
भारमल कावड़िया-राणा साँगा का भित्र 'भारमल कावड़िया, जिसे राणा ने अलवर से बुलाकर रणथम्भौर का दुर्गपाल नियुक्त किया था और कालान्तर में बूंदी के सूरजमल हाड़ा के दुर्गपाल नियुक्त होने पर भी उस प्रदेश का बहुत-सा शासन-कार्य उसी के हाथ में रहा था, राणा साँगा के पुत्र राणा उदयसिंह के शासनारम्भ में ही राज्य के प्रधान मन्त्री के पद पर प्रतिष्ठित हुआ था। चित्तौड़ पर 1567 ई. में सम्राट अकबर का अधिकार हो जाने पर राणा ने उदयपुर नगर बसाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाया। इस नगर के निर्माण एवं उदयसिंह के राज्य को सुगठित करने में मन्त्री भारमल का पर्याप्त योग था। उसके पुत्र भामाशाह, ताराचन्द आदि भी राज्य-सेवा में नियुक्त थे।
वीर ताराचन्द्र--भारमल कावड़िया का पुत्र और भामाशाह का भाई तासचन्द भारी युद्धवीर, कुशल सैन्यसंचालक और प्रशासक था। राणा उदयसिंह ने उसे गौड़याइ प्रदेश का शासक नियुक्त किया। उदयसिंह का पत्र एवं उत्तराधिकारी महाराणा प्रतापसिंह के समय में भी कुछ वर्ष तक उस पद पर रहा 1 सादड़ी को उसने अपना निवासस्थान बनाया था। सम्राटू अकबर के सेनापति आमेरनरेश
322 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ