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उनका बड़ा प्रभाव था। फ़तहवन्द 1741 ई. में तो विद्यमान थे ही, सम्भवतया 1757 ई. में बंगाल-बिहार के अन्तिम स्वतन्त्र शासक नवाब सिराजुद्दौला की पलासी के युद्ध में पराजय एवं मृत्यु के समय भी वह जीवित थे। नवाब और अँगरेजों के संघर्ष में उन्होंने अथवा उनके उत्तराधिकारी ने महत्त्वपूर्ण, किन्तु शायद अदूरदर्शितापूर्ण योग दिया था । फ़तहचन्द के पुत्र या पीत्र जगतसेठ शुगमचन्द ने 1765 ई. में सम्मेदशिखर पर जलमन्दिर का निर्माण कराया था। किन्तु वह संकटकाल था। अँगरेज़ों के दास, शक्तिहीन एवं निकम्मे मीरजाफर आदि नवादों और स्वयं अँगरेज कम्पनी के अधिकारिवों एवं कर्मचारियों की व्यापक लूट-खसोट के कारण अराजकता बढ़ती गयी । जगत्सेठ भी उस लूट-खसोट से नहीं बसे1 कलकत्ते और मुर्शिदाबाद की उनकी हवेलियाँ भी लूटी गयीं। व्यापार-व्यवसाय ठप्प होता चला गया और 18वों शती ई. के बाद तो कपाल के प्रसिद्ध जगले का मात्र नाम ही रह गया । अपने वैभव एवं प्रभायपूर्ण काल में वे उस प्रान्त में जैन तीर्थों और जैनों के समर्थ संरक्षक रहे थे। सन् 1811-12 ई. में बुकानन हेमिल्टन ने जब अपना सर्वेक्षणा वृत्तान्त लिखा तो जगत्सेक अतीत की स्मृति बन चुके थे।
सेठ घासीराम-बादशाह फ़र्रुखसियर (1713-19 ई.) के समय में शाही खुशांची थे। ऊँचा-घासीराम उन्हीं ने बसाया था। इसी काल में 1716 ई. में दिल्ली में नौघरे के भव्य एवं कलापूर्ण श्वेताम्बर-मन्दिर का निर्माण हुआ। सम्भव है इसमें जगतसेठ माणिकचन्द का विशेष योग रहा हो।
लाला केशरीसिंह-मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ने 1721-22 ई. में सादतखाँ धुरहानुल्मुल्क को अवध का सूबेदार नियुक्त किया था। अवध के इस प्रथम नवाब के वृक्षांची लाला केशरीसिंह नाम के अग्रवाल जैन थे जो मचाय के साथ दिल्ली से अबध आये। अयोध्या ही उस काल में इस सूये की राजधानी थी। वहीं नवाय ने अपना डेरा डाला। लाला केशरीसिंह ने 1724 ई. में अयोध्या-तीर्थ के पाँच प्राचीन जिन-मन्दिरों और टोंकों का जीर्णोद्धार कराया था और इस तीर्थ के विकास एवं जैनों के लिए उसकी यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया था।
मध्यकाल : उत्तराध :: 321