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________________ भी हो कर्मचन्द्र के परिवार को बीकानेर लाकर उनसे प्रतिशोध अवश्य लेना । अतएव 1613 ई. में सूरसिंह कर्मचन्द्र के मौते पुत्र मागचन्द्र और चन्द्र को फुसलाकर बीकानेर ले जाने में सफल हो गया, और एक दिन सेना लेकर उनकी होली की घेर लिया। बच्छावतों के परिवार के सदस्य, अनुचर, दास-दासी लगभग 500 व्यक्ति थे। वे वीरता के साथ लड़े और जब अन्य कोई उपाय न हुआ तो अर्हन्त भगवान् की पूजा करके सबसे गले मिल स्त्रियों और बच्चों को चिता में भस्म कर केसरिया पारा पहन जूझ पड़े। इन वीरों ने जौहर करके अपनी शान और मान रखा, किन्तु अन्यायी राजा के सम्मुख झुके नहीं । कुटुम्ब की एक गर्भवती महिला संयोग से अपने मायके में किशनगढ़ थी। उसी से बच्छावत वंश आज तक चला जाता है, वरना उस भीषण साका में सब समाप्त हो गया था। उनके महल मकान आदि दुष्ट राजा ने पूर्णतया ध्वस्त करा दिये थे। 1 हीरानन्द मुकीम अकबर के अन्तिम वर्षों में आगरा के ओसवाल जातीय सेठ हीरानन्द मुकीम अत्यन्त धनवान् एवं धर्मात्मा सज्जन थे। वह विशेषकर शाहजादा सलीम के व्यक्तिगत जीहरी और कृपापात्र थे। वह अरडकसोनी गोत्री साह पूना के पौत्र और साह कान्हड के उसकी भार्या भामनीबहू से उत्पन्न सुपुत्र थे । स्वयं उनके पुत्र साह निहालचन्द थे। हीरानन्द मुकीम के प्रयत्न से 1604 ई. में आगरा से एक संघ सम्मेदशिखर की यात्रार्थ चला था। जब संघ प्रयाग पहुँचा तो सेठ ने शाहजादे से उस संघ के साथ जाने की अनुमति और राज्य का संरक्षण प्राप्त किया । विभिन्न स्थानों के श्रावकों को संघ में सम्मिलित होने के लिए पत्र भेजे गये। ऐसा ही एक पत्र पाकर जौनपुर से पं. बनारसीदास के पिता खरगसेन भी उस संघ के साथ यात्रार्थ गये थे। संघ के साथ हीरानन्द सेठ के अनेक हाथी, घोड़े, पैदल और तुपकदार थे। उन्हीं की ओर से पूरे संघ का प्रतिदिन भोज होता था और सब यात्रियों को सन्तुष्ट किया जाता था। यात्रा करके लगभग एक वर्ष में संघ चापस आया। सब सुविधाएँ होते हुए भी यात्रा में अनेक की मृत्यु हो गयी और बहुत से बीमार पड़ गये। जौनपुर की समाज के आग्रह पर हीरानन्दजी ने चार दिन जौनपुर में भी मुकाम किया और तदनन्तर स्वस्थान प्रयाग चले गये। अकबर की मृत्यु के उपरान्त जब जहाँगीर नाम से सलीम सम्राट् हुआ तो हीरानन्द भी उसके साथ आगरा ले आये और पूर्ववत् उसके कृपापात्र एवं जौहरी बने रहे। जहाँगीर के राज्याभिषेक के उपरान्त उसके उपलक्ष्य में 1610 ई. में हीरानन्द ने सम्राट् को अपने घर आमन्त्रित किया, अपनी हवेली को भारी सजावट की, सम्राट् को बहुत मूल्यवान् नजराना दिया और उसकी तथा दरबारियों की शानदार दावत की। सेठ के आश्रित कवि जगत् ने इस समारोह का बड़ा आलंकारिक एवं आकर्षक वर्णन किया है। अगले वर्ष 1611 ई. में हीरानन्द ने आगरा में खरतरगच्छी लब्धिवर्धनसूरि से एक बिम्ब-प्रतिष्ठा करायी थी और उसी समय उनके सुपुत्र साह निहालचन्द ने भी जिनचन्द्रसूरि से एक 312 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ www
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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