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बीकानेर-नरेश राव कल्याणसिंह का कृपापात्र दीवान था। उसने शत्रुंजय आदि की यात्रा के लिए संघ भी चलाया था जिसका चित्तौड़ में राणा उदयसिंह ने स्वागत-सत्कार किया था। इस राजा की मृत्यु के उपरान्त जब उसका पुत्र रायसिंह 1573 ई. में बीकानेर की गद्दी पर बैठा तो उसने संग्राम के पुत्र कर्मचन्द्र को अपना arart बनाया। वह बीकानेर के बच्छावत दीवानों में अन्तिम, बड़ा वीर, साहसी, चतुर, कूटनीतिज्ञ, दूरदर्शी और मेधावी था। उसके इन गुणों ने उसकी कुरूपता को ढँक दिया था । किन्तु राजा रायसिंह बड़ा उद्यत, उच्छृंखल, फिजूलखर्च और अदूरदर्शी था। राज्य की आर्थिक अवस्था गड़बड़ाने लगी और शासन तन्त्र बिगड़ने लगा। राजाको सुनेर का यह किया, किन्तु उलटे रायसिंह उससे ही रुष्ट हो गया और राज्यवंश के दलपतसिंह एवं रामसिंह के साथ अपने विरुद्ध षड्यन्त्र करने के सन्देह में मन्त्री की जान का गाहक बन गया। लाचार कर्मचन्द्र ने भागकर सम्राट् अकबर की शरण ली। सम्राट् उससे और उसके गुणों से भली-भाँति परिचित था । उसने बड़े सम्मान के साथ उसे अपने ही दरबार में रख लिया और बहुत मानता था। यहाँ रहते भी कर्मचन्द्र ने रायसिंह का कोई अहित-साधन कभी नहीं किया, यद्यपि राजा ने उससे भयंकर बदला लेने की ठान ली थी। जैनधर्म और संघ के प्रभावकों में कर्मचन्द्र का नाम बीकानेर के इतिहास में सर्वप्रसिद्ध है। उसने 1575 ई. में बीकानेर में आचार्य जिनचन्द्रसूरि का स्वागत समारोह बड़ी धूमधाम के साथ किया था। 1578 ई. के दुष्काल में राज्य की भूखी जनता के लिए उसने स्वद्रव्य से अनेक अन्नसत्र खोल दिये थे, मुसलमानों के कब्जे से बहुत-सी जिनमूर्तियाँ निकालकर उन्हें बीकानेर के चिन्तामणिजी-मन्दिर में विराजमान कर दी थीं और ओसवाल समाज में अनेक आवश्यक सुधार चालू किये थे तथा भोजकों को दी जानेवाली वृत्ति का भी नियमन किया था। उपर्युक्त मूर्तियों, जिनकी संख्या 1050 बतायी जाती है, तुरसानखाँ ने सिरोही से लूटी थीं और वे आमरे में अकबर के शाही खजाने में रख दी गयी थीं। लाहौर में 1592 ई. में अकबर मे कर्मचन्द्र की प्रेरणा पर खम्भात से जिनचन्द्रसूरि को आमन्त्रित किया था और पधारने पर समारोहपूर्वक उनका स्वागत किया था। उसी अवसर पर सम्राट् और कर्मचन्द्र की इच्छानुसार सूरिजी ने अपने शिष्य मानसिंह यति को जिनसिंहसूरि नाम देकर उनका पोत्सव किया था। सम्राट् की मृत्यु (1605 ई.) के थोड़े समय उपरान्त ही कर्मचन्द्र को भी रोग ने घर दबाया। रायसिंह उसे देखने के लिए आया, दुख और सहानुभूति प्रकट करके उससे कहा कि वह परिवार सहित बीकानेर लौट चले और पिछली बातें भूल जाए। किन्तु कर्मचन्द्र उस कपटी की बातों में नहीं आया । उसके पुत्र तो तैयार थे, किन्तु उसने मरते-मरते उन्हें बरज दिया कि भूलकर भी बीकानेर का रुख न करना। उधर रायसिंह भी 1611 ई. में मर गया और मृत्युशय्या पर अपने पुत्र एवं उत्तराधिकारी सूरसिंह से यह वचन ले लिया कि जैसे
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मध्यकाल : उत्तरार्ध : 313