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भरे-पूरे कुम्भनगर में बृहद्गुर्जरवंशी क्षत्रिय सजा तारासिंह का राज्य था। उसका पस एवं उत्तराधिकारी बलवान् रणमल्ल था जो वैरियों का दमन करनेवाला, अन्यायमार्ग विस्त, मित्रमूर्ति था। उसका पुत्र शूरवीर, गुणवान् एवं कीर्तिवान सामन्तसिंह नुपराज था। दिल्ली का बादशाह भी उसे मानता था। एक दिगम्बराचार्य के प्रसाद से महाराज सामन्तसिंह को जिनधर्म की प्राप्ति हुई और वह शद्ध जिनभागा हो गये । ही के १२ पुत्र यह राजकुमार पसिंह थे, जिनका दूसरा नाम शिवाभिराम था। यह बीर, सुन्दर, प्रबुद्ध एवं संयमी राजकुमार थे। गृहस्थ में रहते ही यह ब्रह्मचर्य-श्रत का पालन करने लगे थे और राजकाज से अतिरिक्त अपना पूरा समय विद्याचिनोद तथा जिनराज की भक्ति में व्यतीत करते थे। उनकी भार्या रानी वीणा भी शीलादिगुणोमलांग, अहन्त भगवान के पादपों की सेविका, लक्ष्मी-जैसी थीं। उसकी प्रेरणा से राजकुमार ने 'चन्द्रप्रभ-पुराण' नामक संस्कृत काव्य की रचना की थी। ऐसा लगता है कि आगे पलकर उन्होंने राज्य का परित्याग कर दिया और उदासीन श्रावक के रूप में यत्र-तत्र विचरते थे। इन्हीं ने 1582 में जब वह पालवदेश के विजयसार प्रदेश के दिविजनगरदुर्ग (सम्भवतया उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के सुप्रसिद्ध देवगढ़) के देवालय में ठहरे हुए थे तो उन्होंने 'षट्चतुर्थ-वर्तमान-जिनार्चन' नामक काव्य की रचना की थी। राजा सामन्तसेन का यहाँ शासन था और उसके महामात्य रघुपति का पुत्र धन्यराज इन रामषि शिवाभिराम का परम भक्त था। उसी की प्रेरणा से उन्होंने उक्त काय्य की रचना की थी। बड़गजर राजाओं का उपर्युक्त कुम्मनगर सम्भवतया राजस्थान के अलवर-तिजारा क्षेत्र में स्थित था।
__ मन्त्री खीमसी-सम्राट अकबर ने जगन्नाथ कच्छपघात (काछवाहा को रणथम्भौर दुर्ग का शासक नियुक्त करके उसे महाराजा की उपाधि दी थी। इस महाराज जगन्नाथ का राजमन्त्री खीमसी (क्षेमसिंह) नामक एक अग्रवाल जैन था जो बड़ा धर्मात्मा था। उसने 1591 में रणथम्भौर-दुर्ग में एक भव्य जिनालय बनवाकर प्रतिष्ठापित किया।
साहरनवीरसिंह-अग्रवाल जैन थे और सम्राट अकबर के समय में एक शाही खजांची और एक शाही टकसाल के एक अधिकारी थे तथा सम्राट् के कृपापात्र अनुचर थे। उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सम्राट ने उन्हें पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक जागीर प्रदान की थी, जिसमें उन्होंने अपने नाम पर सहारनपुर मगर बसाया। सहारनपुर में भी शाही टकसाल कायम हुई और उसके वही अध्यक्ष नियुक्त हुए। उनके पिता राजा रामसिंह भो राज्यमान्य व्यक्ति थे। उन्होंने कई स्थानों में जैनमन्दिर बनवाये बताये जाते हैं। साहानवीरसिंह के सुपुत्र से गुलाबराय , और पात्र सम्भवतया सेठ मिहिरचन्द्र थे। दिल्ली के ऊँचा सुखानन्द में इन दोनों सज्जनों ने एक जैनमन्दिर बनवाया था जो अब भी उनके नाम से प्रसिद्ध है।
संघपति माणिक सुराणा-निमाड़ (मध्यप्रदेश) से प्राप्त कृष्ण पाषा की
305 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिला