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माशाताmpravaamir
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हैं तो मांसाहारियों को मगर के भीतर रहने का क्या अधिकार है। मेरे लिए यह कितने सुख की बात होती कि यदि मेरा इतना बड़ा होता कि सस्त मांसाहा केवल उसे ही खाकर सन्तुष्ट हो जाते और अन्य जीवों की हिंसा न करते । प्राणिहिंसा को रोकना अत्यन्त आवश्यक है, इसीलिए मैंने स्वयं मांस खाना छोड़ दिया है।" स्त्रियों के सम्बन्ध में यह कहा करता था "यदि युवावस्था में मेरी चित्तवृत्ति अब-जैसी होती तो कदाचित् मैं विवाह ही नहीं करता। किससे विवाह करता? जो आयु में बड़ी हैं ये मेरी माता के समान हैं, जो छोटी हैं ये पुत्री के तुल्य हैं और जो समययस्का हैं उन्हें मैं अपनी बहनें मामता हूँ।"
बिन्सेण्ट स्मिथ प्रभृति इतिहासकारों का मत है कि जीवन के उत्तरार्ध में, लगभग 1580-81 ई. के उपरान्त, सम्राट अकबर के अनेक कार्य एवं व्यवहार उसके द्वारा जैन आचार-विचार को अंशतः स्वीकार कर लेने के परिणामस्वरूप हुए। प्राणिहिंसा से उसे घृणा हो चली थी। गो-मांस छूता भी नहीं था। अन्य मांस का
आहार भी जब-तब और बहुत कम करता था, अन्ततः उसका भी सर्वथा त्याग कर दिया था। वर्ष के कुछ निश्चित दिनों में पशु-पक्षियों की हिंसा को उसने मृत्युदण्ड का अपराध घोषित कर दिया था। स्मिथ कहता है कि इस प्रकार का आचरण और जीवहिंसा निषेध की कड़ी आज्ञाएँ जारी करना जैन गुरुओं के सिद्धान्तों के अनुसार अलने का प्रयत्न करने के ही परिणाम थे और पूर्वकाल के जैननरेशों के अनुरूप थे। क्या आश्चर्य हैं जो अनेक वर्गों में यह प्रसिद्ध हो गया कि 'अकबर ने जैनधर्म धारण कर लिया है। पुर्तगाली जेसुइट पादरी पिन्हेरी ने अपने प्रत्यक्ष अनुमान के आधार से अपने वादशाह को 1595 ई. में आगरा से भेजे गये पत्र में लिखा था कि अकबर जैनधर्म का अनुयायी हो गया है, वह जैन नियमों का पालन करता है, जैनविधि से आत्मचिन्तन और आत्माराधन में बहुधा लीन रहता है, मद्य-मांस और यूत के निषेध की उसने आज्ञा प्रचारित कर दी है, इत्यादि। अनेक आधुनिक इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं कि सम्राट अकबर जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा रखता था, अथवा उस धर्म और उसके गुरुओं का बड़ा आदर करता था। कुछ तो यहाँ तक कहते हैं कि उसके अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण ही मुल्ला-मौलवी और अनेक मुसलमान सरदार उससे असन्तुष्ट हो गये थे और उन्हीं की प्रेरणा एवं सहायता से राजकुमार सलीम (जहाँगीर) ने त्रिदोह किया था। कुछ हो, इसमें सन्देह नहीं है कि मुगल सम्राट अकबर महान् उदार, सहिष्णु और सर्वधर्मसमदर्शी नरेश था । मुसलमान, हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई आदि सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन बह आदरपूर्वक सुनता था और जिसका जो अंश उसे रुचता उसे ग्रहण कर लेता था। वस्तुतः उसे किसी भी एक धर्म का अनुयायी काहा ही नहीं जा सकता। जैन इतिहास में उसका उल्लेखनीय स्थान इसी कारण है कि किसी भी जैनेतर सम्राट् से जैनधर्म, जैन गुरुओं और जैन जनता को इस युग में जो उदार सहिष्णुता, संरक्षण, पोषण और मान प्राप्त हो सकता था
पध्यकाल : उत्तरार्ध :: 50