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________________ यह सर्वथा अनुचित है। मुनि शान्तिचन्द्र में भी सम्राट को बड़ा प्रभावित किया था। एक वर्ष ईदुज्जुहा (बकरीद) के त्यौहार पर जब वह सम्राटू के पास थे तो एक दिन पूर्व उन्होंने सम्राट से निवेदन किया कि वह उसी दिन अन्यत्र प्रस्थान कर आगे, क्योंकि अगले दिन यहाँ हजारों-लाखों निरीह पशुओं का बध होने वाला है। उन्होंने स्वयं "कुरान की आयतों से यह सिद्ध कर दिखाया कि 'कुानी का मान और रक्त खदा को नहीं पहुँचता, वह इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोने कबूल हो जाते हैं।' इस्लाम के अन्य अनेक धर्मग्रन्थों के हवाले देकर मुनिजी मे सम्राट और दावारियों के हृदय पर अपनी बात की सचाई जमा दी। अतएव सम्राट ने घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी भी जीव का बध न किया जाए। बीकानेर के राज्यमन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत की प्रेरणा से 1592 ई. में सम्राटू ने जिनचन्द्रसूरि को खम्भात से आमन्त्रित किया और जब बह लाहौर पधारे तो उनका उत्साह से स्वागत किया। इन सूरिजी ने सम्राट के प्रतिबोध के लिए 'अकबर-प्रतिवोधरास' लिखा। सम्राट ने उन्हें 'युगप्रधान' उपाधि दी और उनके कहने से दो फर्मान जारी किये, जिनमें से एक के अनुसार खम्भात की खाड़ी में मछली पकड़ने पर प्रतिबन्ध लगाया और दूसरे के अनुसार आषाढ़ी अष्टाहिका मैं पशुबध निषिद्ध किया गया। सरिजी के साथ मानसिंह, बैपहर्ष, परमानन्द और समयसुन्दर नाम के शिष्य भी आये थे। सम्राट् की इच्छानुसार सूरिजी ने मानसिंह को जिनसिंहसूरि नाम देकर अपना उत्तराधिकार और आचार्य-पद प्रदान किया। कर्मचन्द्र बच्छावत ने सम्राट् की सहमति से यह पट्टबन्धोत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया था। पान के पार्थनाथ पन्दिर में अंकित 1595 ई, के एक वृहत् संस्कृत शिलालेख में जिनचन्द्रसूरि विषयक यह सब प्रसंग वर्णित है। मुनि पद्मसुन्दर ने सम्मवतया इस सम्राटू के आश्रम में ही 'अकबरशाही-शृंगारदर्पण' की रचना की थी । कहा जाता है कि जद शाहजादे सलीम को एक पत्नी ने मूलनक्षत्र के प्रथम-पाद में कन्या प्रसव की तो ज्योतिषियों ने इसे बड़ा अनिष्टकर बताया और पिता के लिए उसका मुख देखने का भी निषेध किया। सम्राट ने अबुलफजल आदि प्रमुख अमात्यों से परामर्श करके कर्मचन्द्र बच्छावत को जैनधर्मानुसार गृहशान्ति का उपाय करने का आदेश दिया ! अस्तु, कर्मचन्द्र ने चैत्रशुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वर्ण-रजत कलशों से तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा का बड़े समारोहपूर्वक अभिषेक किया और शान्ति-विधान किया। पूजन की समाप्ति पर मंगलदीप एवं आरती के समय सम्राट अपने पुत्रों और दरबारियों के साथ वहाँ आया, अभिषेक का मन्धोदक विनयपूर्वक उसने अपने मस्तक पर चढ़ाया, अन्तःपुर में बैगमों के लिए भी भिजवाया और उक्त जिन-पन्दिर को दस सहन मुनाएँ भेंट की। उसने गुजरात के सूबेदार आजमखों को फरमान भेला था कि मेरे राज्य में जैनों के तीर्थों, मन्दिरों और मूर्तियों को कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार की शत्ति न पहुँचाए, जो इस आदेश का उल्लंघन करेगा, भीषण मध्यकाल : जत्नगर्भ :: 50
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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