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सुल्लानों द्वारा गाये गये करों और जजिया कर को समाप्त करके उसने स्वयं को भारतीय जनों में लोकप्रिय बना लिया था। अनेक द और नमी राजकीय पद पर नियुक्त थे। भारतीय साहित्य और कला की भी प्रभूत प्रगति हुई। सम्राट् द्वारा 1379 ई. में धर्माध्यक्ष का पद भी ग्रहण करने की घोषणा से कुछ कहर मुल्ला लोम उससे अवश्य रुष्ट हुए, किन्तु उसकी गैर-मुस्लिम प्रजा सन्तुष्ट ही हुई। मुसलमानी शासन में उनकी धार्मिक स्वतन्त्रता पर जो कड़ा प्रतिबन्ध या वह बहुत कुछ ढीला पड़ता दिखाई दिया। उसी वर्ष राजधानी आगरा के जैनों ने वहाँ दिगभ्यर आम्नाय का मन्दिर निर्माण किया और बड़े समारोह के साथ बिम्ब-प्रतिष्ठा महोत्सव किया। आगरा के निकट सौरिपुर और हथिकन्त में तथा साम्राज्य की द्वितीय राजधानी दिल्ली में नन्दिसंघ के दिगम्बरी भट्टारकों को महियाँ थीं। दिल्ली में काष्ठासंघ की तथा श्वेताम्बर यतियों की भी गद्दियों थीं। रणकाराय, भारमल्ल, टोडर साहू, हीरानन्द मुकीम, कर्मचन्द बच्छावत प्रभृति अनेक प्रतिष्ठित जैन राज्यमान्य और सम्राट के कृपापात्र थे। उसके राज्यकाल में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कदियों ने साहित्य-सृजन किया, कई प्रभावक जैन सन्त हुए, मन्दिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थ-यात्रा संघ घले और जैन जनता ने कई सौ वर्षों के पश्चात् पुनः धार्मिक सन्तोष की सांस ली। स्वयं सम्राट ने प्रयत्नापूर्वक तत्कालीन जैन मुरुओं से सम्पर्क किया और उनके उपदेशों से लाभान्वित हुआ। आचार्य हीरविजयसूरि की प्रसिद्धि सुनकर सम्राट ने 1581 ई. में गुजरात के सूबेदार साहबखों के द्वारा उनको आमन्त्रित किया, अतएव अपने शिष्यों सहित सूरिजी 1582 ई. में आपस पधारे । सम्राट् ने धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया और उनकी विद्वत्ता एवं उपदेशों से प्रभावित होकर उन्हें 'जगद्गुरू' की उपाधि दी। आचार्य और उनके शिष्य सम्राट् को यथाक्सर धर्मोपदेश देते थे। विजयसेनर्माण ने सम्राट के दरबार में 'ईश्वर कर्ता-हला नहीं है' विषय पर अन्य धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किये और भट्ट नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण पण्डित को बाद में पराजित करके 'सवाई' उपाधि प्राप्त की। सम्राट ने लाहौर में भी गणिजी को अपने पास बुलाया था। यति भानुचन्द्र ने सम्राट् के लिए 'सूर्य-सहमनाम' की रचना की और 'पातशाह अकबर जलालुद्दीन सूर्य सहस्रनामाध्यापक' कहलाये। उनके फ़ारसी भाषा के ज्ञान से प्रसन्न होकर सम्राट ने उन्हें नशफहम' उपाधि भी प्रदान की थी। कहा जाता है कि एक बार सम्राट को भयानक शिरःशूल हुआ तो उसने यतिजी को बुलवाया। उन्होंने कहा कि वह तो कोई वैद्य-हकीम नहीं हैं, किन्तु सम्राट् ने कहा कि उनपर उसका विश्वास है, यह कह देंगे तो पीड़ा दूर हो जाएगी। यतिजी ने सम्राट के मस्तक पर हाथ रखा और उसकी पीड़ा दूर हो गयी। मुसाहबों ने इस जशी में कुर्बानी कसने के लिए पशु एकत्र किये । सम्राट् ने सुना तो उसने तुरन्त कुर्बानी को रोकने का और पशुओं को छोड़ देने का आदेश दिया और कहा कि 'मुझे सुख हो, इस खुशी में दूसरे प्राणियों को दुख दिया जाए,
900 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ