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आदि की व्यवस्था की श्री । गोपण ने 1415 ई. में तथा प्रसिद्ध गोपगोड ने और अय्यष गौड़ की पत्नी कालि-गौड ने 1417 ई. में समाधिमरण किया था, तथा 1419 ई. में गेरसोप्पे की श्रीमती अबे ने तथा उसके साथ समस्त गोष्ठी ने धर्मकार्यों के लिए श्रवणबेलगोल में दान दिये थे ।
देवराय द्वितीय (141946 ई.) - वीरविजय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी यह नरेश संगमवंश का अन्तिम प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेश था। उसने अपने पूर्वजों की उदार नीति का ही अनुसरण किया। उसके समय में 1421 ई. में गोपी के पुत्र भैrants ने और मुनिपद्रस्वामी के प्रिय गृहस्थ- शिष्य बेचगौड के सुपुत्र मदुकगोड ने समाधिमरण किया था। महाराज के पुत्र राजकुमार हरिहर ओडेयर ने 1422 ई. में कनकगिरि के विजयदेव - जिनालय के लिए मलेयूर ग्राम की सम्पूर्ण भूमि का तथा एक अन्य ग्राम का दान देवपूजा, अंग-रंग-भोग-वैभव, रथयात्रा, शासन-प्रभावना आदि के लिए दिया था। विद्या विनय विश्रुत स्वयं महाराज देवराम ने, 1426 ई. में, राजधानी विजयनगर की 'पर्णपूगीफल - आपणवीथी' (पान सुपारी बाजार) में, राजमहल के निकट ही, 'मुक्तिबधूप्रियथर्ता' एवं 'करुणानिधि पार्श्व-जिनेश्वर का पाषाणनिर्मित सुन्दर चैत्यालय निर्माण कराया था, जिसका उद्देश्य अपने पराक्रमपूर्ण कृत्यों एवं कीर्ति को अजर-अमर बनाना, धर्मप्रवृत्ति, स्याद्रादविद्या का प्रकाश इत्यादि था। राजा के एक जैन दण्डनायक करियप्प में जो शुभचन्द्रसिद्धान्ति का गृहस्थ-शिष्य, किम का पुत्र और मारना का शासक था. थी, 1427 ई. में अपने पिता की स्मृति में चोक्किमव्य- जिनालय बनवाकर उसके लिए दान दिया था। चिक्कणगte के पुत्र starts ने 1450 ई. में अपने पुत्र बोम्मनगौड की पुण्यप्राप्ति के लिए स्वस्थान आनेवालु में ब्रह्मदेव और पद्मावती की वसति बनवायी थी। इसी नरेश के उपराजा कार्कल नरेश वीरपाण्ड्य ने 1492 ई. में बाहुबलि की उत्तुंग प्रतिमा निर्माण करायी थी, जिसके प्रतिष्ठा समारोह में स्वयं महाराज देवराव सम्मिलित हुए थे। उस काल के प्रसिद्ध जैनगुरु श्रुतमुनि की ऐतिहासिक महत्व की बृहत् एवं सुन्दर arrer प्रशस्त गोल की सिद्धर बसदि के एक स्तम्भ पर 1499 ई. में उत्कीर्ण की गयी थी। इसके रचयिता कवि मंगराज थे। जैनाचार्य नेमिचन्द्र ने देवराय की राजसभा में अन्य विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करके राजा से विजयपत्र प्राप्त किया था। इस नरेश के जैन होने में कोई सन्देह नहीं है। अपने राज्य के प्रथम वर्ष (1420 ई.) में ही उसने श्रवणबेलगोल के गोम्मटस्वामी की पूजा के लिए एक गाँव दिया था और अपने महाप्रधान बैचदण्डनायक को उसका उत्तरदायित्व सौंपा था तथा 1424 ई. में तुलुवदेशस्थ वरांग के नेमिनाथ जिनालय को वही वरांग ग्राम दान में दिया था। राजा के अनेक मन्त्री, सेनापति, राज्य पदाधिकारी, सामन्त आदि जैन थे जो उसकी शक्ति के स्तम्भ थे अनेक तत्कालीन अभिलेख उस काल में जैनधर्म की प्रभावना, राज्याश्रय एवं प्रतिष्ठित स्त्री-पुरुषों तथा जनता की जिनभक्ति
मध्यकाल पूर्वार्ध : 287