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________________ तीर्थाध्यक्ष चारुकीर्ति पण्डितदेव के शिष्य थे। सन् 1400 ई. में इस तीर्थ पर एक भारी उत्सव, सम्भवतया गोम्मटेश्वर का महामस्तकाभिषेक हुआ था जिसमें दूर-दूर से असंख्य दर्शनार्थी सम्मिलित हुए. थे। राजा हरिहर द्वितीय की 1404 ई. में हुई मृत्यु की घटना भी वहीं एक शिलालेख में अंकित हुई थी। इस राजा ने कनकगिरि, मूडबिद्री आदि को अनेक जैन-बसदियों को स्वयं भी उदार भूमिदाम दिये थे। उसका राजकवि मधुर भी जैन था जो "भूनाथस्थान चूडामणि' कहलाता था और 'धर्मनाथपुराण' एवं 'गोम्मटाइटक' का रचयिता था। इसी काल में अभिनव श्रुतमुनि ने मल्लिषेणकृत 'सज्जनचित्तवल्लभ' को कन्नडी टीका, आयतथर्मा ने 'कन्नडीरत्नकरण्ड' और चन्द्रकीति में 'परमागमसार' लिखे । अभिनव बुक्कराय या बुक्कराय द्वितीय (1404-6 ई.) के प्रथम वर्ष में आवलि के बेचगौड के पत्र और गन्दगौड़ के अनुज ने, और 1405 ई. में सोरब के महाप्रभु की भार्या तथा बयिधराज की सुपुत्री मेचक ने समाधिमरण किया था और स्वयं इस राजा ने 1406 ई. में मूडबिद्री की गुरु-बसद्रि को भूदान दिया था। देवराय प्रथम (1406-120 ई.) और महारानी भीमादेवी...यह नरेश जैनाचार्य वर्धमान के पट्टशिष्य एवं महान् व्याख्याता धर्मभूषण गुरु के चरणों का पूजक था। कई तत्कालीन शिलालेखों में उसके द्वारा जैनधर्म के प्रति उदार रहने और जैनगुरुओं का आदर करने के उल्लेख हैं। इस काल में 1407 ई. में अिहलिगेनाड के नालमहान शमगोड को सुपथ मीपणा का मुभि गृहस्थ-शिष्य, जिनपद-नलिन-भ्रमर, जिनधर्मोद्धारक, जिनबिम्बकारक एवं उदार भव्य हारुवगौड़ ने समाधिमरण किया था। प्रसिद्ध इरुमप और उसके भाई बचप (द्वितीय) के अतिरिक्त उसका जैन मन्त्री गोप-चाप था और मायण, मीपण आदि कई अन्य जैन सामन्त थे। स्वयं महाराज की पथरानी भीमादेवी परम जिनभक्त थी। वह श्रवणबेलगोल के मठाधीश पणिवताचार्य की गृहस्थ-शिया थी और उसने 1410 ई. में उक्त तीर्थ की प्रसिद्ध मंगायि-असदि का जीर्णोद्धार कराके उसमें शान्तिनाथ भगवान् की नवीन प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी और उक्त्त जिनालय के लिए प्रभूत दान दिया था। इस अति सुन्दर बसदि को, जिसका नाम त्रिभुवन-डामणि चैत्यालय था, पूर्वकाल में, 1925 ई. में अभिनवचारुकीति-पण्डिताचार्य के शिष्य, सम्यक्त्वादि-अनेकगुणगणाभरण-मूर्षित, रायपात्र-चूड़ामणि, श्रवणबेलगोल के निवासी मंगाधि नामक सज्जन ने बनवाया था। रानी भीमादेवी के साथ ही पण्डिताचार्य की एक अन्य शिष्या यसतायि ने वहाँ वर्धमान स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी। उपर्युक्त मंगायि सम्भवतया प्रधान राजमतक (राय-पात्र) था। देवराय के उपरान्त वीरविजय (1410-19 ई.) राजा हुआ। उसके भी इरुगप्प आदि जैन मन्त्री रहे। इसके समय में, 1412 ई. में, मेरसोप्पे निवासी गुम्मटगण में श्रवणबेलगोल की पाँच बसदियों का जीर्णोद्धार कराया था तथा उनमें आहारदान 286 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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