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________________ लिए 1397 ई. में दान दिया था । सन् 1379 ई. में आलुवमहाप्रभु, 18 कम्पा के शिरोरत्न, महाप्रभुओं के सूर्य, तवनिधि के बोम्मगौड ने संन्यसनविधिपूर्वक भरण करके स्वर्म प्राप्त किया था। वह बड़ा धर्मात्मा, पुण्यकार, कीर्तिशाली, जिनेन्द्र के चरणों का आराधक और राज्यमान्य था। उसी समय उसके कुटुची सरीखा, स्वामिभक्त एवं तनिधि के शान्ति-तीर्थकर के चरणों का पूजक उसका एक सेवक भी समाधिमरण द्वास मृत्य को प्राप्त हुआ था। मन्त्रीश्वर बेत्रा की मृत्यु 1380 ई. में हुई, उसी वर्ष के एक लेख में नयकीर्ति-बती के शिष्य (पुत्र) परम विद्वान एवं ज्योतिर्विज्ञ वाहबलि पण्डितदेव की प्रशंसा है । सन् 1983 ई. में करिमहल्लि के गोड़ी ने पार्श्वदेव-यसदि निर्माण करायी थी और 1984 ई. में मुनि आदिदेव ने स्वगुरु श्रुतकीर्तिदेव के स्वर्गस्थ होने पर रावन्दूर के चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराके उनकी तथा सुमतिनाथ तीर्थंकर की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की थीं। दाण्डेश इरुग ने 1885 ई. में विजयनगर में कुन्थुनाथ-जिनेन्द्र का सुन्दर पाषाण-निर्मित मन्दिर बनवाया था। सेनापत्ति इरुम्पप्प ने 1987 ई. में स्वगुरु पुष्यसेन को आज्ञा से उस वर्धमान-निलय के सम्मुख एक सुन्दर मण्डप भी बनवाया था, जिसे स्वयं उसने 1382 ई. में निर्माण कराया था। इसी राज्यकाल में मुनिभद्रदेव ने हिसुगल-बसदि बनवायी थी और मुलगुपड के जिनेन्द्र मन्दिर का विस्तार किया था। उनके समाधिमरण के उपरान्त 1386 ई. में उनके शिष्य पारिससैनदेव ने कदि में उनका स्मारक स्थापित किया था। मुनिभद्र के गृहस्थ-शिष्य, चतुर्विधदानविनोद, रत्नत्रयाराधक, जिनमार्गप्रभावक, हिरियालि नगर के स्वामी नालमहाप्रभु कामगौड के कुलदीपक सुपुत्र चन्दप्प ने 1989 ई. में समाधिमरपा किया था। विजयकीर्तिदेव की शिष्या, कोंगास्न्यवंश की रानी सुगणिदेवी ने 1391 ई. में अपनी जननी पोचवरसि के पुण्यार्थ अपने अंगरक्षक विजयदेव द्वारा मुल्लुर में एक जिनालय का पुनरुद्धार करके इसमें जिनप्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी और दान दिया था। सोरब के तम्मगौड को असाध्य क्षयरोग हो गया था और कोई इलाज कारगर नहीं हो रहा था, अतएव उसने स्वगुरु की अनुमति से 1395 ई. में समाधिमरण किया। उसी वर्ष एक प्रतिष्ठित महिला, कानरामण की सती पत्नी कामी-गौडि ने समाधिमरण किया था। 1997 ई. में समिगौडि ने, 1999 ई. में होम्बुच्च के पाय ने तथा चन्दगोड़ि ने, 1400 ई. में उद्धरे के सिरियष्ण ने और 1409 में बोम्मिमोड़ि ने समाधिभरपा किया था। लगता है कि उस युग में यह प्रथा बहुत लोकप्रिय थी। शुभचन्द्र के प्रियाग्र शिष्य कोपण के चन्द्रकीतिदेव ने 1400 ई. के लगभग चन्द्रप्रभु की एक प्रतिमा अपनी निषिधि के लिए प्रतिष्ठित करायी थी। उसी वर्ष राजा के जैन मन्त्री कृधिराज ने कोप्पणतीर्थ के लिए दान दिया था। राज्य के अनेक जैन तीर्थों में श्रवणबेलगोल उस काल में भी सर्वप्रधान था। अनगिनत यात्री इस तीर्थ की बन्दना के लिए आते थे और जैसा कि 1998 ई. के एक शिलालेख से प्रकट है, उस प्रान्त के शासक राज्य के जैन सामन्तु ये जो मध्यकाल : पूर्वार्ध :: 2015
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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