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माहिगौड़ के पुत्र बोण ने समाधिमरण किया था। इसी हिन्दूराय सुत्राण चुक्काराय के विजयराज्य में 1371 ई. में राय-राजगुरु मण्डलाचार्य सिंहनान्यि के प्रिय गृहस्थ - शिष्य सोरब के बिट्टलगौड की सुपुत्री और तवनिधि के नाल-महाप्रभु ब्रह्म की अर्धागिनी लक्ष्मि बोम्मक्क ने समाधिमरण किया था ( गौड या गवुण्ड और नालप्रभु राज्य के प्रतिष्ठित क्षेत्रीय एवं स्थानीय अधिकारी होते थे। उसी वर्ष रामचन्द्र मलधारि के शिष्य चन्दंगो के पुत्र तथा अन्य कई गौंड़ों एवं महाप्रभुओं ने समाधिमरण किया था और उनके स्मारक बने थे। उस काल के प्रसिद्ध जैन सन्त श्रुतमुनि, जिनके चरण राजाओं द्वारा पूजित थे, उनकी 1372 ई. की समाधि- प्रशस्ति में उनके प्रमुख मुनि एवं गृहस्थ - शिष्यों का वर्णन हुआ है। इनमें से एक थे- पुरुषोत्तम राज- कामश्रेष्ठि और दूसरे थे- हुल्लनहति के राजा पेरुमालदेव तथा पेम्पिदेव । ये माचिराज और मालाम्बिका के पुत्र थे और बुक्कराय के सामन्त थे । उन्होंने अपनी राजधानी में त्रिजगन-मंगल नामक जिनालय बनवाकर माणिक्यदेव से उसकी प्रतिष्ठा करायी थी, तथा वहीं के प्राचीन परमेश्वर चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया था और दोनों की विधिवत् सतत पूजा-अर्चा के लिए भूमिदान दिया था। पेरुमालदेव का निधन 1965 ई. में हुआ था और उनकी भावज धर्मात्मा अल्लाम्बा ने 1968 ई. में समाधिमरण किया था। उनका पुत्र राजा नरोत्तमंत्री था जो बड़ा गुणवान् और यशस्वी था। सन् 185 अप एक वसन्तकीर्ति, देवेन्द्रकीर्ति, विशालकीर्ति, शुभकीर्ति, कलिकाल सर्वज्ञ महारक धर्मभूषण, अमरकीर्ति और वर्धमानमुनि की गुण-प्रशंसा है। आवलि के नालमहाप्रभु मन्दगौड के पुत्र और रामचन्द्र मलधारि के गृहस्व-शिष्य बेचिगौड ने 1376 ई. में समाधिमरण किया था । आवलि के 5-6 प्रभुओं ने मिलकर उसका स्मारक बनवाया था। महाराज काराय का प्रधान मन्त्री और सेनापति जैन वीर बैचप था। वह और उसके सीन वीर पुत्र ही राज्य के प्रमुख सैन्यसंचालक तथा बहमनी सुलतानों आदि उसके शत्रुओं पर बुक्काराय की बौद्धिक सफलताओं के प्रधान साधक थे। बैचप राजा हरिहर प्रथम के समय से ही मन्त्री रह आये थे और बुक्काराय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी हरिहर [द्वितीय के समय तक उसी पद पर आरूद रहे। उसके पुत्र दण्डनाथ इरुगप ने 1367 ई. में एक जिनालय चेतुमल्लूर में बनवाकर उसके लिए दान दिया था। हरिहर द्वितीय (1977-1404 ई.) का राज्यकाल मन्त्रीराज बैचप्प और उसके पुत्रों एवं पौत्रों के लौकिक तथा धार्मिक कार्यकलापों से भरा है। कूचिराज आदि अन्य जैन मन्त्री एवं राजपुरुष भी थे। अपने इन जैन वीरों को सहायता से इस प्रतापी नरेश ने अपने राज्य की शक्ति काफ़ी बढ़ा ली थी, शासन-तन्त्र सुचारु एवं सुसंगठित किया और विविध उपाधियों से विभूषित सम्राट् पद धारण किया था। इसके राज्य में जैनधर्म खूब फला-फूला। स्वयं सम्राट् की महारानी बुक्कवे जिनभक्त थी और उसने सेनापति इरुग द्वारा निर्मापित राजधानी के कुन्थुनाथ जिनालय के
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284 प्रमुख ऐतिerसिक जैन पुरुष और महिलाएँ