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का कार्य कर रहा था और विरूपाक्ष सम्भवतया हरिहर का पुत्र था। हरिहर के अन्तिम वर्ष 1365 ई. में कम्पा के जैन मुरु मल्लिनाथ को दान दिया गया था। इस काल के प्रमुख जैन विद्वान वादी सिंहकीर्ति, "धर्मनाथपुराण' के कता उभयभाषा-चक्रवती बाहुबलिपण्डित, 'गोमट्टसारवृत्ति' के रचयिता केशववर्णी, 'खगेन्द्रमणिदर्पण' के प्रणेता मंगरस और भट्टारक धर्मभूषण धे।।
बुक्काराय प्रथम (1365-77 ई.)- हरिहर प्रथम का अनुज एवं उत्तराधिकारी था। उसके सम्मुख 1368 ई. में एक जटिल अन्तःसाम्प्रदायिक समस्या उपस्थित हुई। राज्य के समस्त नाडुओं (जिलों) के भव्यों (जैनों) ने उनके प्रति भक्तों (वैश्यावों) द्वारा किये गये अन्यायों का प्रतिकार कसने के लिए महाराज बुक्काराय की सेवा
आवेदन दियो हासो रहो नाक भक्तों, उनके आचार्यो, गुरुओं, पुरोहितों और मुखियाओं को तथा अपने प्रमुख सामन्तों आदि को एकत्र करके जैनियों का हाथ वैधावों के हाथ में दिया और घोषणा की कि हमारे राज्य में जैनदर्शन और वैष्णवदर्शन के बीच किसी प्रकार का भेद नहीं है। जैनदर्शन पूर्ववत पंचमहाशब्द और कलश का अधिकारी है और रहेगा। अपने द्वारा जैनदर्शन की हानि या वृद्धि करना वैष्णवजन अपने ही धर्म की हानि था वृद्धि समझें । जैन और वैष्णव एक हैं, उनके बीच कोई अन्तर करना ही नहीं शाहिए। श्रवण-बेलगोल-तीर्थ की रक्षार्थ वैष्णवजन्न अपनी ओर से 20 वैष्णव रक्षक नियुक्त करेंगे। राज्य के जैनी इसी कार्य के लिए एक "हण' (सिक्का विशेष) प्रति घर के हिसाब से प्रदान करेंगे। रक्षकों के वेतन से अतिरिक्त द्रव्य का उपयोग जैन मन्दिरों की लिपाई-पुताई, मरम्मत आदि में किया जाएगा। तालय्य नामक एक अधिकारी को इस द्रव्य के एकत्रित करने और तदनुसार व्यय करने का भार सौंपा गया। महाराज ने आज्ञा प्रचारित की कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त शासन की अवज्ञा करेगा यह राजद्रोही, संघद्रोही और समुदाय-द्रोही समझा जाएमा और दण्ड का मागी होगा। जैन और वैम्पय दोनों समुदायों ने मिलकर जैन सेठ बुसुबिसेट्टि को अपना सामूहिक संघनायक बनाया। उपयुक्त राजाज्ञा को राज्य की समस्त बस्तियों में अंकित करा दिया गया। बुक्काराष का यह ऐतिहासिक निर्णय उसके उत्तराधिकारियों की धार्मिक नीति का आधार बना। दोनों ही थमों के अनुयायियों को राज्य का संरक्षण और धर्मस्वातन्त्र्य समान रूप से प्राप्त हुआ, साथ ही उनमें परस्पर सद्भाव उत्पन्न किया गया। इसी राजा के समय में 1367 ई. में श्रुतमुनि के शिष्य और आदिदेव के गुरु देशीषण के देवचन्द्रनालेप ने कुप्पटूर में एक जिनालय का पुनरुद्धार कराया था तथा स्वर्गगमन किया था, और वारिसेनदेव के गृहस्थ-शिष्य मसणगौड के पुत्र गोरवगौड़ ने समाधिमरण किया था। सन् १५67 ई. में माणिकदेव ने अपने गुरु मेधचन्द्रदेव के निधन पर उनका स्मारक स्थापित किया था। लेख में घायलिदेव और पार्श्वदेव नामक मुनियों की भी बहुत गुण-प्रशंसा है। उसी वर्ष माधवचन्द्र-मलधारी के प्रिय गृहस्थ-शिष्य लवनिधि के
मध्यकाल : पूर्वाध :: 283