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हुई थी और चार करोड़ व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं। इसके अतिरिक्त उसके चार गोकुल थे जिनमें से प्रत्येक में दस-हजार गाएँ थी, पौंच सौ इलों की खेती होती थी, पाँच सौ शकट (गाड़ियाँ) देश-देशान्तर में व्यापारार्थ माल दोया करती थी, और भाभा फल-फूलों से भरे अनेक बाग-बगीचे थे। उसका मान-सम्मान एवं लोक-प्रतिष्ठा उसके अनुरूप ही थी। जन्म भगवान महावीर इस ओर पधारे और उनका समवसरण उस नगर के बाहर दुतिपलाश नामक चैत्योद्यान में लगा तो राजा और प्रजा भगवान् के दर्शनार्य उस ओर उमड़ चले। गृहपति आनन्द और उसकी भार्या ने भी यह समाधार जाना । उत्सुकता, जिज्ञासा एवं शिष्टाचार के नाते यह दम्पती भी भगवान के समवसरण में जा उपस्थित हुए। भगवान् के सदुपदेश के प्रभाव से अनेक व्यक्तियों ने व्रत, चरित्र, संयम और त्याग अंगीकार किये। सपत्नीक आनन्द भी
गवान् के व्यक्तित्व एवं वाणी के सुखदायी तेज से प्रभावित हो उनका परम भक्त बन गया 1 किन्तु जब श्रावक के व्रतों के ग्रहण करने का प्रश्न आया तो और सब व्रत तो तुरन्त ले लिये, परिग्रह का मोह परिग्रह-परिमाण में बाधक हो रहा था। शंका-समाधान में जब उन्हें यह स्पष्ट हुआ कि स्वेच्छापूर्वक शक्तितः किया गया त्याग ही सच्चा त्याग है, और यह कि श्रावक का परिग्रह-परिमाण सीन कोटि का हैं-आवश्यकता भर परिग्रह रखकर शेष का परित्याग उत्तम कोटि का है, वर्तमान में जितना परिग्रह है उससे जितना अधिक उपार्जित हो उसका त्याग मध्यम कोटि का Crite है उसकेगन चौगले कभीमा स्थिर करके शेप का त्याग जघन्य कोटि का है, तो विचारशील आनन्द श्रावक ने मध्यम कोटि का परिग्रह-परिमाण अंगीकार किया। उनकी भार्या शिवानन्दा मे भी श्राविका के व्रत ग्रहण किये। श्रेष्ठि दम्पती मे स्वस्थान पर आकर भगवान के आदर्श उपासक बनने के प्रयास में सहर्ष चित्त दिया। दूसरे दिन से ही नवीन नवीन समस्याएँ सामने आने लगीं। गोकुलों से गायों का दुहा दूध सहनों घड़ों में भरकर आया। पहले तो आवश्यकता से जितना अधिक होता था, बेच दिया जाता था। किन्तु अब तो सेट नवीन उपार्जन का त्याग कर चुका था, अतः सेवकों को आदेश दिया कि आज ये दूध बेचा नहीं जाएगा, जिन लोगों के यहाँ बाल बच्चे हैं या अन्य रोगादि कारण से दूध की आवश्यकता है उनमें बिना मूल्य वितरित कर दिया जाया करे । इसी प्रकार फल, शाक, अन्न, धान्य आदि के विविध उत्पादन अभावग्रस्त जनता में वितरित किये जाने लगे। उधार में लगी गूंजी का जो लाखों रुपया राज में आता था यह भी जिन्हें व्यापार आदि किसी कार्य के लिए आवश्यकता होती, बिना श्याज लिये दे दिया जाने लगा। पशुधन में बसचे (बछड़े, बछिया आदि) होने से जो वृद्धि होती उनकी मर्यादा से अधिक पशुओं को और जरूरतमन्दों को दे दिया जाने लगा। व्यापार आदि के अतिरिक्त आय होती तो उसे सार्वजनिक लाभ के कार्यों, पाटशाला, धर्मशाला, अनाथालय, चिकित्सालय, करी-बावड़ी, धर्मायतन आदि के निर्माण एवं
महावीर-शुग ::