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का नाम विजया था। उन्हीं के पुत्र जीवन्धर थे। इनका रोचक, रोमांचक एवं साहसिक चरित्र जैन साहित्यकारों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में ही नाही, तमिल और कन्नड में भी उत्तम काव्य कृतियों इस विषय पर रची गधों यथा तमिल का जीवक-चिन्तामणि, कन्नड का जीवन्धर सम्पू एवं जीवन्धस्-सांगत्य, संस्कृत के क्षत्र-चूडामपिा, गधचिन्तामणि, जीवन्धर-चरित, आदि। पिता सत्यन्धर साहन थे, वैज्ञानिला सान्द्रों के अयोधक किन्तु राजकाज में कोरे थे, अतएच दुष्ट मन्त्री काष्ठांगार के षड्यन्त्र का शिकार हुए, राज्य भी गया और प्राण भी गये । उसके पूर्व ही यह आसन्नसंकट देख गर्भवती विजयारानी को स्वनिर्मित मयूरयन्त्र में बैठाकर आकाशमार्ग से बाहर भेज चुके थे। दूर एक श्मशान में यन्त्र उत्तरा, वहीं जीवन्धर का जन्म हुआ। अनेक संकटों को झेलते हुए रानी ने पुत्र के लालन-पालन, सुरक्षा एवं उचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की। किशोर अवस्था से ही विभिन्न स्थानों में भ्रमण तथा अनेक साहसिक कार्य कुमार जीवन्धर ने किये। क्यस्क होने पर दुष्ट काष्ठांगार से लोहा लिया, उसे दण्डित किया और अपना राज्य पुनः प्राप्त किया। वर्षों अपने राज्य का सुशासन, प्रजा का पालन और भोगोपभोगी का रसास्वादन करने के पश्चात् भगवान महावीर का सम्पर्क मिला तो सब कुछ तृणवत् छोड़ उनके शिष्य मुनि हो गये। दश प्रसिद्ध उपासक
उपासक दशांग-सूत्र में भगवान महावीर के दस सर्वश्रेष्ठ साक्षात् उपासकों एवं परम भक्तों का वर्णन प्राप्त होता है, जो सब सद्-गृहस्थ थे और गृहस्थावस्था में रहते हुए ही धर्म का उत्तम पालन करते थे। उनके नाम हैं-आनन्द, कामदेव, चूल्लिनी-पिता, सुरादेव, घुल्लशतक, गृहपति कुपड़कोलिक, सदाल-पुत्र, महाशतक, मन्दिनी-पिता और सालिही-पिता।
गृहपति आनन्द वाणिज्यग्राम का प्रधान धनाधीश था। वह जमरश्रेष्ठि ही नहीं, जनपद तथा राज्यश्रेष्टि भी था । स्वयं वाणिज्यग्राम व्यापार की देश में विश्रुत मादी धी। एक वाणिज्यग्राम बिहार के विदेह प्रान्त में वैशाली के निकट भी था, किन्तु क्योंकि आनन्द-श्रावक के विवरण से स्पष्ट है कि भगवान महावीर उज्जयिनी से चलकर सीधे वाणिज्यग्राम पहुँचे थे। वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। यह स्थान वर्तमान पालवा (या मध्य प्रदेश) में ही कहीं स्थित होना चाहिए। सम्भवतया यह उस काल में अवन्तिनरेश के किसी उपराजा के अधिकार में रहा होगा। आनन्द की रूपवती पत्नी का नाम शिवानन्दा था। इन दम्पती का जिनधर्म से कोई परिचय नहीं था। कहा जाला है कि वह धनपति बारह करोड़ सोनइयों (स्वर्ण मुद्राओं) का स्वामी था-एक सोनइया 16 (सोलह) माशे स्वर्णमान का होता था। इसमें से वार करोड़ मुद्राएँ उसके कोषागार में सदा सुरक्षित रहती थीं, चार करोड़ व्याज पर उधार लगी
34 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ