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बल्लाल तलीय की सीमान्त चौकियों के चे रक्षक शे, साथ ही बड़े स्वदेशभक्त, स्वतन्त्रताप्रेमी, वीर, साहसी और महत्वाकांक्षी थे। मुसलमानों द्वारा दक्षिण भारत के होयसल, यादव और ककातीय राज्यों का अन्त कर दिये जाने पर ये दीर मुसलमानों को स्वदेश से निकाल बाहर करने के कार्य में जुट गये। अन्ततः वे 1336 ई. में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर हम्पी नामक स्थान को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया और वहाँ विजयनगर (विधानगर या विद्यानगरी अपरनाम हस्तिनापुर) की नींव डाली, जो 1343 ई. में एक सुन्दर, सुदृढ़ एवं विशाल नगर के रूप में बनकर तैयार हुआ। इस बीच तीन भाइयों की मृत्यु हो चुकी थी और केवल दो-हरिहर और बुक्का बने थे। अतएव बड़ा भाई हरिहरराय प्रथम (1346-65 ई.) विजयनगर राज्य का प्रथम अभिषिक्त नरेश हुआ। तदनन्तर बुक्काराय प्रथम (1965-77 ई.), हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.), बुक्काराय द्वितीय (1404-4406 ई.), देवराय प्रथम (1406-1410 ई.), वीर विजय (1410-19 ई.), देवराय द्वितीय (1419-26 ई.), इम्मडि देवराय (1447-67 ई.), विरूपाक्षराय (1467-77 ई.) और पद्रियाराय (1477-86 ई.) क्रमशः राजा हुए। तत्पश्यात बंश परिवर्तन हुआ और नरसिंह सालुव (1486-92 ई.), इम्पडि नरसिंह (1492-1505 ई.), धीर नरसिंह भुजवल (1506-9 ई.) और सुप्रसिद्ध सम्राट कृष्णदेवराय (1509-90 ई.) क्रमशः सिंहासन पर बैठे। तदनन्तर अच्युतराय (1530-42 ई.) और सदाशिवराव {1542-70 ई.) राजा हुए। अन्तिम का मन्त्री और राज्य का सर्वेसर्वा रामराजा था। इसी शासनकाल में दक्षिण के मुसलमान सुल्तानों ने संगठित होकर विजयनगर पर भीषण आक्रमण किया और 1565 ई. में तालिकोट के ऐतिहासिक युद्ध में विजयी होकर महानगरी विजयनगर को जी भरकर लूटा और पूर्णतया नष्ट-प्रष्ट कर दिया। विजयनगर के हिन्दू साम्राज्य का अन्त हुआ; यद्यपि रामराजा के भाई तिरूमल ने पामकर पेनगोण्डा में शरण ली और चन्द्रगिरि को राजधानी बनाकर राज्य करने लगा। उसके वंशज यहाँ 17वीं शती के अन्त तक छोटे से राजाओं के रूप में चलते रहे।
विजयनगर के राजाओं का कुलधर्म एवं राज्याधर्म हिन्दू धर्म था। प्रजा का बहुभाग जैन था। उसके पश्चात् श्रीवैष्णव और फिर लिंगायत (वीरशैव) थे, कुछ सदशैव भी थे। गला लोम प्रारम्म से ही सिद्धान्ततः सभी धर्मों के प्रति सहिष समदर्शी और उदार थे। जैनधर्म को उनसे प्रभूत संरक्षण एवं पोषण प्राप्त हुआ। कतिपय इतिहासकारों ने विजयनगर राज्य में दक्षिणमुजा और थामभुजा नामक दो जातियों या प्रधान वर्गों का उल्लेख किया है, जिनसे आशय क्रमशः 'भव्य और 'भक्त' संज्ञाओं से सूचित जैनों और वैष्णवों का है। विजयनगर-नरेश उन्हें अपनी दक्षिण और वाम भुजा समझते और मानते थे। सज्य की अधिकांश जनता और सम्भ्रान्तजन इन्हीं दो समकक्ष तथा प्रायः समसंख्यक वर्गों में बैटे हुए थे। राज्य में
मध्यकाल : पूर्वार्ध :: 281