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________________ शासकों द्वारा मन्दिरों और देवमूर्तियों की विध्वंसलीला प्रायः अनवरत चलती आधी ४.९% थी और उस काल में भी राणा संग्रामसिंह (सांगा) - मेवाड़ के सुप्रसिद्ध वीर, युद्धविजेता एवं प्रतापी राणा थे। उनके समय में भट्टारक प्रभाचन्द्र (1514-24 ई.) चित्तौड़ में दिल्ली से स्वतन्त्र पट्ट स्थापित किया था। उनके पट्टधर मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र ( 1524-46 ई.) थे। इन मट्टारकों की प्रेरणा और राणा के प्रश्रय में साहित्य सृजन भी हुआ । लाला वर्णी की प्रेरणा पर कर्णाटक से आये आचार्य नेमिचन्द ने चित्तौड़ में जिनदासशाह के पार्श्व - जिनालय में 1515 ई. में 'गोमहसार की संस्कृत टीका रची थी। कहा जाता है कि इस राणा ने जैनाचार्य धर्मरत्नसूरि का भी हाथी, घोड़े, सेना और बाजेगाजे के साथ स्वागत-सत्कार किया था और उनके उपदेश से प्रभावित होकर शिकार आदि का त्याग कर दिया था। इन आचार्य का ब्राह्मण विद्वान् पुरुषोत्तम के साथ सात दिन तक राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ था । राज्य में अनेक जैन उच्चपदों पर आसीन थे, यथा कुम्भलनेर का दुर्गपाल आशाशाह, रणथम्भौर का दुर्गपाल मारमल कावड़िया, राणा का मित्र तोलाशाह आदि । तीलाशाह - बप्पभट्टसूरि द्वारा जैनधर्म में दीक्षित ग्वालियर के राजपूत आमराज की वैश्य पत्नी से उत्पन्न पुत्र राजकोटरी (भण्डारी) नाम से प्रसिद्ध हुआ था और ओसवाल जाति में सम्मिलित हो गया था, ऐसी अनुश्रुति है। उसका एक वंशज सारणदेव था, जिसकी आठवीं पीढ़ी में तोलाशाह हुआ जो राणा साँगा का परम मित्र था। कहा जाता है कि राणा ने उसे अपना अमात्य बनाना चाहा किन्तु उसने मना कर दिया, केवल श्रेष्ठिपद ही स्वीकार किया। वह बड़ा न्यायी, विनयी, ज्ञानी मानी और धनी था तथा याचकों को हाथी, घोड़े, वस्त्राभूषण आदि प्रदान कर कल्पवृक्ष की भाँति उनका दारिद्र नष्ट कर देता था। जैनधर्म का वह बड़ा अनुरागी था। कर्माशाह - तोलाशाह का पुत्र कर्माशाह ( कर्मसिंह) राणा सांगा के पुत्र एवं उत्तराधिकारी रत्नसिंह का मन्त्री था। एक तत्कालीन शिलालेख में उसे 'श्री रत्नसिंह - राज्ये राज्यव्यापारभार-धौरेय कहा गया है। मन्त्री होने से पूर्व यह कपड़े का व्यापार करता था। बंगाल, चीन आदि देशों से करोड़ों रुपये का माल उसकी दुकान पर आता-जाता था। इस व्यापार से उसने विपुल द्रव्य कमाया था। गुजरात के सुलतान बहादुरशाह को उसके युवराज्यकाल में कर्माशाह ने एक लाख रुपया बिना शर्त के देकर शाहजादे की आवश्यकता पूरी की थी। अतएव जब वह गुजरात का सुल्तान हुआ तो कर्माशाह की प्रार्थना पर उसने उसे शत्रुंजय तीर्थ का उद्धार करने के लिए सहर्ष फ़रमान प्रदान कर दिया था और मन्त्री कर्माशाह ने विपुल द्रव्य व्यय करके उक्त सिद्धाचल का जीर्णोद्धार किया तथा 1530 ई. की वैशाख कृष्ण 6 के दिन अनेक यतियों एवं आवकों की उपस्थिति में समारोहपूर्वक प्रतिष्ठा करायी थी । 278 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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