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और उदारता के
सेठ के पश्चात् उनके सुयोग्य पुत्र सेट रतनाशाह ने उसी साथ उसे राणा के उत्तराधिकारी राणा रायमल के समय में 1498 ई. में पूरा करके उसकी समारोह प्रतिष्ठा की थी। उनकी यह अनुपम कृति ही उक्त पिता-पुत्र सेय की महानता की परिचायक और उनकी अमर कीर्ति का सजीव स्मारक है ।
राणा रायमल के समय में ही 1486 ई. में चित्तौड़ दुर्ग के मोमुखतीर्थ के निकट एक जिनमन्दिर का निर्माण हुआ था, जिसमें दक्षिण के कर्णाटक देश से लाकर ऋषभजन की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की गयी बतायी जाती है। प्रतिष्ठापक खरतरगच्छीय आचार्य जिनसमुद्रसूरि थे।
शाह जीवराज पापड़ीवाल- इसी काल में राजस्थान के मुण्डासा नगर के सुप्रसिद्ध धनी सेठ, महान् धर्मप्रभावक एवं अद्भुत विश्वप्रतिष्ठाकारक शाह जीवराज पापड़ीवाल हुए हैं | वह मुण्डासा के राव शिवसिंह के कृपापात्र राज्यश्रेष्ठि हैं। उन्होंने 1490, 1491 और 1492 ई. में लगातार तथा बाद में भी कई बृहद् जिनबिम्ब-प्रतिष्ठोत्सव किये थे। इनमें से 1491 ई. (वि. सं. 1548 ) की वैसाख शुक्ल 3 ( अक्षय तृतीया) का प्रतिष्ठोत्सव तो अभूतपूर्व एवं अपश्चिम था, जिसमें लाखों प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गयीं। कहा जाता है कि इस प्रतिष्ठा के उपरान्त वह अनगिनत छकड़ों में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को भरकर संघसहित सम्पूर्ण भारत के जैनतीर्थों की यात्रार्थ निकले थे और मार्ग में पड़नेवाले प्रत्येक जिनमन्दिर में यथावश्यक प्रतिमाएँ पधराते गये थे। जहाँ कोई मन्दिर नहीं था, वहाँ नवीन चैत्यालय स्थापित करते गये। परिणाम यह है कि आज भी उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बंगाल, बिहार, बुन्देलखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं कर्णाटक पर्यन्त छोटे-बड़े नगरों एवं ग्रामों के अधिकांश जिनमन्दिरों में एक वा अधिक प्रतिमाएँ वि. सं. 1548 में शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित पायी जाती हैं। इनमें से अधिकांश प्रतिमाएँ एक से दो फुट ऊँची पद्मासनस्थ, श्वेत संगमरमर की हैं, कुछ एक अन्य कृष्ण, हरित, नील आदि वर्गों की भी हैं। प्रतिष्ठाचार्य शाह जीवराज के गुरु मट्टारक जिनचन्द्र (1450-1514 ई.) थे जो बड़े विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य थे। वह मूलनन्दिसंघसरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के दिल्ली पट्टाधीश पवनन्दि के प्रशिष्य और शुभचन्द्र के शिष्य थे। स्वयं उनके पट्टधर अभिनवप्रभाचन्द्र थे जिन्होंने चित्तौड़ में अपना पह स्थापित किया था। आचार्य जिनचन्द्र को तर्क-व्याकरणादिग्रन्थ-कुशल मार्गप्रभावकचरित्रचूड़ामणि आदि कहा गया है। शाह जीवराज के अतिरिक्त उन्होंने अन्य श्रावकों के लिए भी विभिन्न समयों एवं स्थानों में अनेक बिम्बप्रतिष्ठाएँ की थीं। 'चतुर्विंशति जिन-स्तोत्र' की रचना भी उन्होंने की थी। उनके अनेक मुनि और मेधावी पण्डित-जैसे गृहस्थ विद्वान् शिष्य थे। उपर्युक्त बृहद प्रतिष्ठाओं में उनके शिष्यगण भी सहयोगी होते थे। आचार्य जिनचन्द्र और शाह जीवराज के कार्य के महत्व का मूल्यांकन करने में यह तथ्य ज्ञातव्य है कि पिछले लगभग 400 वर्ष से मुसलमान
मध्यकाल पूर्वार्ध : 277
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