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15वीं शती के प्रारम्भ में चित्तौड़ के राणा लाखा के समय में रामदेव नवलखा नामक जैन राज्य का एक पन्त्री था। लाखा के पश्चात् हमीर मोकल और फिर कुम्भ गद्दी पर बैठे। राणा हमीर के समय में उसकी पटरानी के जैन कामदार मेहता जालसिंह ने बड़ी उन्नति की थी।
महाराणा कुम्मा-प्रबल प्रतापी नरेश थे। मालवा के सुलतान पर विजय प्राप्त करके उन्होंने चित्तौड़ में एक नौ-खमा उत्तुंग एवं कलापूर्ण जबस्तम्भ बनवाया था। उन्हीं के आ सवाल बाल सुधारमा
दित जैन कीर्तिस्तम्भ के निकट स्थित महावीरस्वामी के एक प्राचीन मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। 1488 ई. में राणा के कोठारी (कोषाध्यक्ष) साह वेलाक मे, जो साह केल्का का पुत्र था, राजमहल के निकट ही भगवान् शान्तिनाथ का एक छोटा-सा कलापूर्ण जिनालय बनवाया था जो शृंगार-चबरी के नाम से प्रसिद्ध है, और 1457 ई. में श्री गुहिल पुत्र-विहार-श्री बड़ादेव-आदि जिन-मन्दिर के बायीं ओर स्थित गुफा में आम्रदेव-सूरि के उपदेश से साह सोमा के पुत्र साह हरपाल ने 1 देवियों की मूर्तियां स्थापित करायी थीं। स्वयं महाराणा ने मचीन्द-दुर्ग में एक सुन्दर चैत्यालय बनवाया था। राणा के अन्य जैन राजपुरुष बेला भण्डारी, मुणराज आदि थे।
सेठ धन्नाशाह-रलाशाह-महाराणा कुम्भा के समय की कला के क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि राणकपुर के अद्वितीय जिनमन्दिर हैं । राणा के राज्य में, पाली पिले के सादड़ी करये से 6 मील दक्षिण-पूर्व में, अरावली पर्वतमाला से घिरे सणकपुर में, मधाई नदी-तीरवी, सुरम्य प्रकृति की गोद में, हरीतिमा के मध्य मुक्ताफल की भाँति दप-दप करता भगवान् ऋषभदेव का वह चौमुखा धवल प्रासाद अत्यन्त मनोरम एवं बेजोड़ है। लगभग 48000 वर्ग फुट (205 x 198 मुट) क्षेत्र में, 36 सीढ़ियों से प्राप्त ऊँची कुरसी पर बने इस तिमसिले निर्दोष श्वेत संगमरमर से निर्मित जिनभवन में 1444 स्तम्भ, 44 मोड़, 24 मण्डप, 54 देवकुलिकाओं और मनोरम शिखरों से युक्त इस कलाधाम में, शिल्पियों का सुनियोजित हस्तकौशल पग-पग पर दर्शक का मन मोह लेता है। लगभग डेढ़ सहस स्तम्भ रहते भी तारीफ़ यह है कि किसी ओर और कहीं से भी मूलनायक के दर्शन में ये स्तम्भ साधक नहीं होते। खेल-बूटे, पच्चीकारी, प्रस्तसंकन, मुतांकन, दृश्यांकन सभी अत्यन्त कलापूर्ण एवं दर्शनीय हैं। गोडवाइ की पंचतीर्थ में इस कलामर्मज्ञों में प्रशसित जिनमन्दिर की गणना है, किन्तु उनमें वही सर्वश्रेष्ठ है। इसका निर्माण शिल्पसम्राट् दीपा की देख-रेख में हुआ और पूरा बनने में 15 वर्ष लगे। इसके स्वनामधन्य निर्माता महाराणा कुम्भा के कृपापात्र सेठ धन्नाशाह पोरवाल थे, जिन्होंने महाराणा से ही 1433 ई. में इस मन्दिर का शिलान्यास कराया था। राणा ने 12 लाख रुपये अनुदान स्वयं दिया था। निर्मापा में सम्पूर्ण व्यय 90 लाख स्वर्ण मुद्राएँ उस काल में हुआ बताया जाता है। सेठ धमाशाह और महाराणा कुम्भा के जीवनकाल में यह निर्माण पूरा नहीं हो सका।
27 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं