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लड़ते-लड़ते ही उसने नीरगति पायी थी। जैन विद्वानों द्वारा रचित 'हम्मीरमहाकाव्य' एवं 'हम्पीर-रासो'-जैसे काव्यग्रन्थों का यह नायक है।
चित्तौड़ में उस काल में राणा भीमसिंह का शासन था, जिसकी विश्वप्रसिद्ध अनिन्दा सुन्दरी रानी पद्मिनी के रूप से लुब्ध अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर भयंकर आक्रमण किया था। असंख्य राजपूत मारे गये और रानी पद्मिनी के साथ सहस्रों स्त्रियाँ जीवित चिता में भस्म हो गयीं। लदनन्तर सीसोदिया शाखा के राणा हम्मीर ने 1920 ई. के लगभग चित्तौड़ पर पुनः अधिकार किया और राज्य का अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ।
महान् धर्मप्रपायक साह जीजा-14वीं शती ई. के उत्तरार्ध में मेदपाट देश (मेवाई) के चित्रकूर-नगर (चित्तौड़) में उस प्रदेश के इस अभूतपूर्व जिनधर्म प्रभावक, खड़यालगोत्री साई जीजा बघेरवाल ने भगवान आदिनाथ का वह अद्वितीय कीर्तिस्तम्भ (जयस्तम्भ निर्माण कराया था जो वर्तमान पर्यन्त उस उदार धर्मात्मा सेठ की कीर्ति का स्मारक बना हुआ है। यह उतुंग, विशाल एवं अत्यन्त कलापूर्ण पामस्तम्भ पाषाण निर्मित सत्तखना है: चीलर ऊपरी खनों पर 67 सीढ़ियाँ बनी हैं। शिर्ष स्थान पर चार तोरण द्वारों से युक्त वैदिका है जिसमें प्रलिमा सर्वतोभद्रिका स्थापित थी। ऊपर छत और शिखर है। स्तम्भ की बाहरी दीवारें कालापूर्ण मूलांकनों एवं पद्मासन, खड्गासन जिनमूर्तियों से पूरित हैं। साह जीजा के प्रपौत्र के एक अभिलेख (1484 ई.) पें लिखा है कि उस महान निर्माता ने यह निर्माण कार्य 'निजभुजोपार्जित वित्त-बलेन' -स्वयं अपने हाथ से कमाये हुए द्रव्य से सम्पादित किया था। इतना ही नहीं, उस महानुभाव ने 108 उत्तुंग, शिखरबद्ध जिनमन्दिरों का
और इतने ही जिनबिम्बों का उद्धार किया था, 108 श्री जिन-महाप्रतिष्ठाएँ करायी थीं, 18 स्थानों में अष्टादशकोटि श्रुतमण्डार स्थापित किये थे और सवा लाख राजधन्दियों को मुक्त कराया था। उपर्युक्त स्तम्भ जिस चन्द्रप्रम-जिनेन्द्र-चैत्यालय के निकट बनवाया गया था, यह भी सम्भवतया सा जीजा का ही बनवाया हुआ था। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह कीर्तिस्तम्भ और भी पूर्वकाल का बना हुआ है-साह जीजा ने उसका जीर्णोद्धार कराया था। यदि कोई पुरातन स्तम्भ वहाँ रहा भी होगा तो यह मुसलमानों (अलाउद्दीन खिलजी) के आक्रमणों और शासन के समय प्रायः पूर्णतया ध्वस्त हो गया होगा। अपने वर्तमान रूप में यह महान स्तम्भ साह जीजा की कृति है। इसी से प्रेरणा लेकर उसके लगभग एक सौ वर्ष पश्चात् राणा कुम्भा ने चित्तौड़ में अपना जयस्तम्भ बनवाया था। इसी साह जीजा बघेरवाल के प्रपौत्र, साह पुनसिंह के पौत्र और साह देश के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ साह लखमण ने स्वागुरु सेनगण के भट्टारक सोमसेन के उपदेश से 1484 ई. में बराइदेश के कारंजानगर में सुपार्श्वनाथ-जिनालय बनवाकर उसका प्रतिष्टोत्सद, महायात्रोत्सव और तीर्थक्षेत्रों की वन्दना की थी।
मध्यकाल : पूर्वाधं :: 275