________________
(तमराशाह या समरसिंह) उस काल के धनी, प्रभावशाली एवं राज्यमान्य श्रावक थे। खिलजी सुल्तानों के शासनकाल में ही उन्होंने शबंजय तीर्थ का जीर्णोद्धार कराया था और उनके प्रान्तीय सूबेदार अलपखाँ की आज्ञा प्राप्त करके एक यात्रा संघ भी निकाला था, जिसकी रक्षार्थ उनकी प्रार्थना पर सूबेदार ने 10 मीर (सैनिक जमादार) उनके साथ कर दिये थे। सुल्तान गयासुद्दीन तुग़लुक सेठ समरशाह को पुत्रवत् मानता था और राज्यकार्य से उसने उन्हें तलिंगाना भेजा था। उसका उत्तराधिकारी मुहम्मद तुलुक (1325-51 ई.) भी उन्हें भाई-जैसा मानता था, और उसने उन्हें तेलिंगाने का शासक नियुक्त किया था।
साहु वाधू-दिल्ली के एक प्रतिष्ठित जैन सेठ थे। जब मुहम्मद तुग़लुक ने 1327 ई. में दिल्ली का परित्याग करके देवगिरि (दौलताबाद) को राजधानी बनाया तो दिल्ली उजाड़ हो गयी। उस समय साहु वाधू भी दिल्ली छोड़कर दफराबाद में जा बसे, जहाँ जम्होले अनेक शास्त्रों को प्रतिलिपियों करायी और 'शूलपंचमी-कधा' (भविष्य-दत्तकथा) स्वयं लिखी और या किसी विद्वान् लिखाया थीं।
साहु महीपाल-दिल्ली के अग्रवालवंशी जैन थे, जिनके पुत्रों ने 1394 ई. में महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण' की प्रति लिखवायी थी।
साहु सानिया-मूलतः पाटननिवासी अग्रवाल जैन था और दिल्ली में आकर बस गया था। वह और उसका परिवार सम्पन्न होने के साथ-ही-साथ बड़ा धार्मिक था। राजधानी तुगलकाबाद (दिल्ली) के शाही किले के क्षेत्र में ही दरवार-चैत्यालय नाम का एक जैन मन्दिर विद्यमान था, जिसके निकट ही साह सागिया के पुत्र-पौत्रादिक रहते थे। इससे विदित होता है कि यह परिवार प्रतिष्ठित और राज्यमान्य था 1 इन लोगों में 1342 ई. में उक्त चैत्यालय में एक महान् पूजोत्सव किया था ! उक्त अवसर पर शास्त्रदान के रूप में अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ भी करायी गयी थीं, जिनका लेखक (लिपिकार) गन्धर्व का पुत्र पण्डित बाहड था। इस परिवार के गुरु काष्ठासंधी आचार्य नयसेन के शिष्य भट्टारक दुर्लभसेन थे, जिनका सुलतान भी आदर करता था। यह गुरु सम्भवतया उक्त दरबार-धेस्यालय में ही विराजते थे। साहु सागिया और उनके पुत्रों ने विशेषकर पाँच ग्रन्थ सकल संघ के समक्ष विराजमान किये थे।
सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लुक (1925-51 ई.) एक विवादास्पद विचित्र चरित्रवाला निरंकुश किन्तु उदार और विद्याप्रेमी नरेश श। दिल्ली के सुलतानों में उसका राज्य सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली था, किन्तु उसके सनकी स्वभाव, विचित्र योजनाओं एवं अभियानों के कारण उसके भरते ही सल्तनत का झुलवेग से पतन होने लगा और एक-एक करके सभी प्रान्तीय सूबेदार स्वतन्त्र हो गये। तथापि उस युग की दृष्टि से धार्मिक सहिष्णुता भी उसमें अन्य सुल्तानों की अपेक्षा अधिक थी। अपने शासन के प्रथम वर्ष में ही उसने राज्य के जैनों (सयूरगान या सराओगान,
262 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ