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ही था। कुमारपाल के पूरे राज्यकाल में फिर कोई स्यचक्र या परचक्र का उपद्रव नहीं हुआ, न कोई दुर्भिक्ष ही पड़ा । लक्ष्मी के समान प्रकृति भी देश पर प्रसम्म थी, जिसके कारण उसने अभूतपूर्व, तम्रद्धि और प्रजा ने अप्रतिम सुख और शान्ति का उपभोग किया। कहते हैं कि प्रायः राज्यप्राप्ति के समय तक कुमारपाल, अकबर की भांति ही निरक्षर था किन्तु अपने अध्यवसाय से वह थोड़े ही समय में सुविज्ञ हो गया। झान-विज्ञान और कला की उसके समय में पाती भिषाद्ध और धार्मिकता के प्रवाह में राजा एवं प्रजा ने सुखपूर्वक निमज्जन किया । प्रारम्भ में अन्य सोलंकी नरेशों की भाँति उसका भी कुलधर्म शैव और इष्टदेव सोमनाथ शिव थे। पशुबलि में भी उसका विश्वास था और मध-मांस का भी सेवन करता था। रक्तपात करने और विनाशक युद्धों के छेड़ने में उसे कोई हिचक नहीं होती थी। किन्तु आचार्य हेमचन्द्रसूरि के संसर्ग से उसमें शनैः शमैं सद्धर्म की भावना जारात होने लगी और उनके उपदेशों के प्रभाव से बह जैनधर्म का परम भक्त हो गया । यहाँ तक कि 1159 ई. में उसने प्रकट रूप से जिनधर्म अंगीकार कर लिया। वह चरित्रवान् एवं एक पत्नी-व्रत का पालक था और उसने श्रावक के व्रत धारण करके 'परम-आहेत' विरुद्ध प्राप्त किया था। उसने युद्धों से विराम लिया, राज्य में पशु-हिंसा, पशुबलि, शिकार, मद्यपान, जुआ आदि का राजाज्ञा से निषेध किया, मृत्युदण्ड बन्द कर दिया, राज्य भर में अमीरी घोषणा करा दी, दीन-दुखियों का पालन किया, निस्सन्तान विधवाओं के सत्त्व की रक्षा की और संघपति मानकर चतुर्विध संघ के साथ शयंजय, गिरनार आदि धर्म-क्षेत्रों की हीर्थयात्रा की। निर्माता भी ऐसा था कि उसने 1440 नवीन जैनमन्दिरों का निर्माण और 1000 पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया बताया जाता है। स्वयं अपनी राजधानी को उसने अनेक सुन्दर जिमालबों से अलंकृत किया था, जिनमें सनोपरि त्रिभुवनपाल-बिहार था, जिसे उसने अपने पिता की स्मृति में बनवाया था। विद्वानों की संगति एवं वाद-विवाद, तत्चचची आदि में उसे आनन्द आता था। स्वयं आचार्य हेमचन्द्र के पथप्रदर्शन में राजकार्य एवं सांस्कृतिक कार्यों का संचालन होता था। उन्होंने लघा रुनके बृहत् शिष्यमण्डल ने प्रभूत साहित्य की रचना की। कई सारत्र-भण्डार और अन्ध-लिपि-कार्यालय भी स्थापित हुए। अनेक अन्य कवि, चहरणा, जैनाजैन पण्डित और विज्ञान, साधु और तपस्वी उसके राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। ब्राह्मण विद्वानों और कवियों ने तथा आधुनिक इतिहासकारों ने भी इस आदर्श एवं सर्वतः सफल जैन नरेश की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। किसी ने उसे राजर्षि कहा है तो किसी ने सम्राट अशोक महान् से उसकी तुलना की है। श्रेणिक, सम्प्रति, खारवेल और अमोघवर्ष-जैसे महान् जन सम्राटों के समकक्ष उसे स्थान दिया जाता है। उसकी समस्त दिनचर्या ही अति धार्मिक श्रमणोपासक एवं आदर्श मरेश के रूपयस्त थी। प्रसिद्ध विद्वान् मुनि जिनविजय के शब्दों में "उसका जीवन एक महाकाव्य के समान था जिसमें शृंगार, हास्य, करुण, सैद्र, वीर, भयानक,
254 :: प्रमुख ऐतिहासिक जन पुरुष और महिलाएँ