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भटकता रहा । चित्तौड़ में उसकी एक दिगम्बर मुनि, सम्भवतया रामकीति से भेंट हुई, जिनसे उसमे बहुत ज्ञान और उपदेश ग्रहण किया। अन्ततः वह नमेन्द्रपट्टन में अपने बहनोई कन्हदेव के पास चला गया। इस संकटकाल में उसने बड़े कष्ट सह, हर समय राजा का भय बना रहता था, यदि कोई सम्दल ये तो वह स्वगुरू हेमचन्द्रसूरि की भविष्यवाणी और आश्वासन तथा अपने सहायकों एवं समर्शकों की सद्-इच्छा में विश्वास ही थे। अन्ततः लगभग 30 वर्ष की आयु में 1143 ई. में कुमारपाल सोलंकी गुजरात के सिंहासन पर बैठा । राज्य प्राप्त करते ही उसने अपने समर्थकों एवं संकटकाल के सहायकों को उदारतापूर्वक सन्तुष्ट किया। महामन्त्री उदयन के सुयोग्य पुत्र बाह (बाग्मद) को उसने अपना प्रधानमन्त्री बनाया। उदयन के पुत्र आहइ, बाहड़ और अम्बई भी राजा के मन्त्री और सेनानायक बने, केवल छोटा पुत्र सोन्ला व्यापारी हुआ। स्थर्य वृद्ध मन्त्रीश्वर उदयन का भी परामर्श उसे प्राप्त रहा-उदयन की मृत्यु उसी के राज्यकाल में 150 ई. के लगभग हुई थी। अपने रक्षक कुम्भकार अलिंग को कुमारपाल ने अपनी राजसभा का प्रमुख सदस्य बनाया
और पुरोहिल देवश्री आदि को विपुल द्रध्य प्रदान किया। चित्तौड़ के जिस साजर नामक कुम्भकार ने काँटों के ढेर में छिपाकर उसकी जयसिंह सिद्धराज के सैनिकों से रक्षा की थी, उसके नाम चित्तौड़ प्रदेश के 700 ग्रामों की प्राधिक आय का पट्टा लिख दिया। कुमारपाल की।150 ई. की विसाई प्रशस्ति के सायता दिगम्बराचा जयकीर्ति के शिष्य रामकीर्ति मुनि थे। राज्य के प्रथम कुछ वर्ष तो कुमारपाल को अपने विरोधियों, प्रतिद्धन्द्रियों तथा अन्य आन्तरिक एवं बाधा शत्रुओं से अपना मार्ग निष्कण्टक करने में बीते, तदनन्तर उसने राज्य एवं शासन को सुसंगठित किया और अपने विजय यात्रा अभिवान चलाये । सौमर के अर्णोराज चौहान, धारा के बल्लालदेव परमार, चन्द्रावती के विक्रमसिंह, मारवाड़ और चित्तौड़ के राजाओं, कोंकण के मल्लिकार्जुन, गोपालपट्टन (मोआ) के कदम्बराजा इत्यादि अनेक नरेशों को पराजित एवं अपने अधीन करके सम्राट् कुमारपाल सोलंकी ने अपने साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया था। उत्तर में तुरुष्क देश (गजनवी सुल्तानों के अधीन पश्चिमी पंजाब), पूर्व में गंगातट, पश्चिम में समुद्रतीर और दक्षिण में सह्याद्रि के सुदूर शिखरपर्यन्त गुजरात का ताम्रचूड़-विजयध्वज फहसया । गुर्जर साम्राज्य में सब 18 देश सम्मिलित थे और बह उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गया था। स्वयं महाराज की महत्वाकांक्षा और शूरवीरता के अतिरिक्त इस महती सफलता का प्रधान श्रेय उसके जैन मन्त्रियों एवं प्रचण्ड जैन सेनापतियों को श्रा। उदयन-पुत्र अम्बष्ठ (आनाभद) उसका प्रधान सेनापति था । शिलाहारमरेश को पराजित करने के उपलक्ष्य में राजा ने उसे शिलाहारों का विशिष्ट विरूद 'राजपितामह प्रदान किया था। विन्ध्य-अदबी को पददलित करनेवाला और गमयूथों को प्रशिक्षित करके अन्हिलवाड़े की गजसैन्य को अजेय बना देनेवाला, धनुर्विद्या-प्रवीण महादण्डनायक लहर मी जैन
उत्तर भारत::258