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के कर्ता श्वेताम्बराचार्य देवनारे और कल्याणमन्दिर स्तोत्र के रयिता कणांटक के दिगम्बसधार्य कुमुदचन्द्र के मध्य जयसिंह सिद्धराज की राजसभा में ही शास्त्रार्थ हुआ था। इसमें सन्देह नहीं कि चौलुक्य-चक्रवर्ती सिद्धराज जयसिंह का शासनकाल गुजरात के इतिहास का स्वर्णयुग था और उसे बह रूप देने का प्रधान श्रयं उसके आश्रित जैन मस्त्रियों, सेनापतियों, सेटों, कलाकारों, विद्वानों और साधुओं को है। हेमचन्द्राचार्य ने इस राजा के लिए सिद्धाहेम-शब्दानुशासन नामक प्रसिद्ध व्याकरण की रचना की थी। उसने उन्हें "कलिकालसर्वज्ञ' की, उनके शिष्य नाट्यकार समचन्द्रसूरि को 'कविकटारमल्ल' की, आनन्दसूरि की 'व्याघ्र-शिशुक' को और अमरचन्द्रमूरि को 'सिहशिशुक' की उपाधियों प्रदान करके सम्मानित किया था। ___सम्राट् कुमारपाल सोलंकी (1143-75 ई.)-जयसिंह सिद्धराज के कोई पुत्र नहीं था, केवल एक पुत्री कांचनदेवी थी जो सपादलक्ष (साँभर-अजमेर) के चौहान नरेश अर्णोराज के साथ विवाही थी और जिसका पुत्र सोमेश्वर उपनाम चाहड था। अपनी मृत्यु के समय इस चाह को ही जयसिंह ने अपना दत्तकपुत्र एवं उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। किन्तु राजमन्त्रियों का बहुमत, आचार्य हेमचन्द्र और राजपुरोहित देवश्री कुमारपाल के समर्थक थे, अतः राज्यसिंहासन उसे ही प्राप्त हुआ। वह भीमदेव की उपासनी चौला नामक नर्तकी से उत्पन्न क्षेमराज का प्रपौत्र, देवप्रसाद (देवपाल या हरपाल) का पौत्र और त्रिभुवनपाल का ज्येष्ठ पुत्र था 1 सजा का ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी क्षेमराज अपने सौतेले अनुज कर्ण को राज्य देकर तपस्वी हो गया था। और उसका पुत्र देवपाल कर्ण की मृत्यु होने पर जीते जी चिता में प्रवेश कर गया था। उसका पुत्र त्रिभुवनपाल जी जयसिंह का भतीजा लगता था, बड़ा राज्यभक्त, सदाचारी और नीतिपरायण क्षत्रिय वीर था। राजा भी उसका आदर करता था, किन्तु अपने जीवन के अन्तिम पाद में उससे रुष्ट हो गया था और कहते हैं कि उसने त्रिभुवनपाल की हत्या करा दी थी तथा कुमारपाल की भी हत्या कराने का प्रयत्न किया था। त्रिभुवनपाल की पत्नी कशमीरादेवी थी, जिससे उसके कुमारपाल आदि तीन पुत्र और प्रमिला एवं देवल नाय की दो पुत्रियाँ हुई थीं 1 प्रमिला का विवाह जयसिंह के एक दण्डनायक कन्हदेव के साथ हुआ था, जो कुमारपाल के प्रधान सहायकों में से था। कुमारपाल का जन्म अपने पिता की जागीर दधिस्थली (देवली) में 1093 ई. में हुआ था। राज्ययंश में जयसिंह का निकटतम उत्तराधिकारी वही था, किन्तु उसके पिता तथा स्वयं राजा की दीर्घायु के कारण उसे चिरकाल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और जब उसके पिता की भी हत्या कर दी गयी तो राजा की दुरभिसन्धि के कारण उसका जीवन संकर में पड़ गया। उस समय सजधानी के ही अलिंग मामक एक कुम्हार की सहायता से कुमारपाल की जीवनरक्षा हुई और वह भापकर भूमकच्छ शला गया जहाँ खम्भात के सजा केलम्बराज ने उसे आश्रय दिया । तदनन्तर वह पैठन, इज्जैन, चित्तौड़ आदि विभिन्न स्थानों में विपन्न अवस्था में कई वर्ष
252 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ