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जयसिंह सिद्धराज भीम प्रथम का पौत्र और कर्ण सोलंकी का पुत्र एवं उत्तराधिकारी गुजरात का चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ई.) बड़ा शक्तिशाली, प्रतापी, धार्मिक, विद्यारसिक, उदार नरेश था। वह महादेव का उपासक था, तो महावीर का भी भक्त था। उसने रूद्रमाल शिवालय बनवाया, तो महावीर जिनालय भी बनवाया। शैवतीर्थ सोमनाथ का यह रक्षक था, तो जैनतीर्थ शत्रुंजय की यात्रा करके उसने उक्त स्थान के आदिनाथ - जिनालय को बारह ग्राम समर्पित किये थे। सिद्धपुर में बिहार नायक हुन्छ दिसाहितयतभन गिरनार तीर्थ पर भगवान नेमिनाथ का मुख्य मन्दिर बनवाने का श्रेय भी इसी राजा को दिया जाता है । वह मन्त्रशास्त्र का भी ज्ञाता था और सिद्ध चक्रवर्ती कहलाता था। महाराज जयसिंह के शासन के पूर्वार्ध में उसका प्रधान मन्त्री मुंजाल मेहता नामक एक ओलवाल जैन था। वह उसके पिता कर्ण के समय से ही मन्त्रीपद पर आरूढ़ था । राजमाता मीनलदेवी ( कर्ण की रानी और जयसिंह की जननी) मुंजाल मेहता को बहुत मानती थी। यह अत्यन्त स्वामिभक्त, कूटनीतिज्ञ, प्रशासनकुशल और युद्ध-विद्या - विशारद था और अपने स्वामी के राज्यविस्तार एवं शक्ति संवर्धन में उसका प्रधान सहायक था। उसके साथी और शिष्य उदयन, शान्तनु, आलिय पृथ्वीपाल आदि राज्य के कई अन्य जैन मन्त्री राजा जयसिंह के शक्तिस्तम्भ थे। प्रायः ये सब राजनीति-कुशल, प्रशासनपट्ट वीरयोद्धा थे और साथ ही धनी व्यापारी व्यवसायी भी थे। उन्होंने राज्यहित के अतिरिक्त अनेक धार्मिक कार्य और निर्माण भी किये थे। मन्त्री पृथ्वीपाल ने आलू के एक मन्दिर ( चिमलक्सी) में अपने सात पूर्वजों की हाथीनशीन ( गजारूढ़ ) मूर्तियाँ बनवाकर स्थापित की थीं । मन्त्रीराज उदयन ने सोरठ के दुर्धर राजा खेंगार को पराजित करके जयसिंह को चौलुक्य चक्रवर्ती free fदिलाया था और कर्णावती ( अहमदाबाद) में एक मव्य जिनालय निर्माण कराकर उसमें 72 बहुमूल्य प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायी थीं। उदयन मन्त्री के पुत्र आहड, बाहर, अम्बड और सौल्ला भी विचक्षण राजमन्त्री और प्रचण्ड सेनानायक थे। राजा भोज परमार की धारानगरी की भाँति ही जयसिंह सोलंकी ने अपने अन्हिलपाटन को ज्ञान और कला का अनुपम केन्द्र बनाने का निश्चय किया और वहीं एक विशाल विद्यापीठ की स्थापना की। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य 'कलिकालसर्वज्ञ' उपाधिधारी हेमचन्द्रसूरि को उसने अपने आश्रय में होनेवाली साहित्यिक प्रवृत्तियों के नेतृत्व का भार सौंपा। राजा उनका बहुत आदर करता था। कक्कल, वाग्भट, रामचन्द्र गुणचन्द्र, महेन्द्रसूरि, देवचन्द्र, उदयचन्द्र, वर्धमानगणी, यशश्चन्द्र, बालचन्द्र, आनन्दसूरि, अमरचन्द्र आदि अनेक जैनगृहस्थ एवं साधु विद्वान आचार्य के सहयोगी अथवा शिष्य थे। उन सबने राजा से सम्मान प्राप्त किया और संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के बीसियों महत्वपूर्ण ग्रन्थों की उसके प्रश्रय में रचना की। इस राजा की दार्शनिक शास्त्रार्थ कराने और सुनने का भी चाव था। उनमें से एक स्वाद्वादरत्नाकर
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उत्तर भारत 251