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________________ सस क्लभी के पत्रको के उपरान्त गुजरात में जो स्थानीय राज्यवंश इदय में आये उनमें जैनधर्म की दृष्टि से तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़ासमास, चापोल्कट, चाप या चावड़ा वंश सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वनराज घादड़ा-जयशेखर वायोत्कट का पुत्र वनराज गुजरात के चावड़ा वंश एवं राज्य का संस्थापक था। उसने स्वगुरु जैनाचार्य शीलमुणसूरि के उपदेश, आशीर्वाद और सहायता से मैत्रकों का उच्छेद करके 745 ई. में अपने राज्य की स्थापना की थी और अन्हिलपुर पाटन (अन्हिलवाड़ा) नाम का नवीन नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया गुरुदक्षिणा के रूप में जानन दे. शीतपति: को अपना पूरा राज्य समर्पित करना चाहा तो उन्होंने उसके बदले में एक सुन्दर जिनमन्दिर बनवाने के लिए राजा से कहा। अतएव राजा ने अपनी राजधानी में पंचासर-पाश्वनाथ नामक प्रसिद्ध जिनालय बनवाया था। जिनालय के लिए मूलनायक पाशव-प्रतिमा पंचासर से लाकर विराजमान की गयी थी, इसी कारण वह पंचासर-पाशवनाथ-जिनालय कहलाया। वनराज चावड़ा ने और भी कई जिनमन्दिर बनवाये थे। उसका प्रधान मन्त्री चम्पा नामक जैन यणिक श्रेष्ठि था, जिसने चम्पानेर नगर बसाया। मिन्मय नामक एक अन्य धनयान जैन श्रेष्ठि ने, जिसे दनराज पितातुल्य मानता था, अन्हिलवाड़ा में भगवान् ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया था। इसी निम्नय सेठ का पुत्र लाहोर वनराज का वीर सेनापति था। इस प्रकार स्वयं राजा वनराज चावड़ा के अतिरिक्त उसके राज्य के अधिकांश प्रभावशाली वर्ग, मन्त्री, सेनापति, उच्चपदस्थ कर्मचारी, महाजन और व्यापारी आदि जैन थे। वनराज के उपरान्त योगराज, रत्नादित्य, क्षेमराज, आकडदेव और भूयडदेव अपरनाम सामन्तसिंह नाम के राजा इस वंश में क्रमश: हुए । दसवीं शती ई. के उत्तरार्ध में मूलराज सोलंकी ने इस वंश का अन्त किया। वर्धमान नगर में भी शापवंश की एक शाखा का राज्य था, जिसमें बार-पाँच राजा हुए और गिरनार जूनागढ़ के चूड़ासमास राजे तो 10वीं से प्राय: 16वीं शती पर्यन्त घलाते रहे। इन विभिन्न चावड़ा राज्यवंशों के क्षेत्रों में यपि शैव और शाक्त धर्म भी राज्य-मान्य थे, जैनधर्म ही बहुधा राजधर्म रहा और जो राजे जैनी नहीं हुए, चे भी उसके प्रति सहिष्ण रहे। ___ अन्हिलवाड़ा का सोलकीवंश प्राचीन चालुक्यवंश को ही एक शाखा थी, इसीलिए सोलंकी नरेश स्वयं को बहुधा चौलुक्य कहते थे। गुजरात के इतिहास में सोलंकीवंश का सचोपरि महत्व है। इनके समय में यह देश उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा और एक शक्तिशाली साम्राज्य का रूप लेने में समर्थ हुआ। साथ ही जैन इतिहास को उसने कम-से-कम एक जैन समाद, दर्जनों जैन मन्त्री और वीरसेनानायक, सैकड़ों प्रसिद्ध धनाय श्रेष्ठि, अनेक दिग्गज जैन विद्वान और चिरस्मरणीय सांस्कृतिक उपलब्धियों प्रदान की। सन् 941 ई. में मूलराज सोलंकी ने इस वंश की स्थापना की थी। 974 ई. तक वह प्रायः सम्पूर्ण गुजरात पर अपना उत्तर भारत: 248
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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