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________________ याचक उसके द्वार से खाली हाथ नहीं लौरता था। जितना जो शहता उसे ये डालता था । अन्त में वह अपने समाप्त न होने वाले धन से ऊब गया और उक्त पारस-पथरी को एक दिन एक गहरी झील में फेंककर सन्तोष की सांस ली । पाहाशार सम्बन्धी दम्सकथाओं में तध्यांश कितना है, नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि पारस-पधरीवाली बात जनमानस की कल्पना-प्रसूत हो। किन्तु ऐसा कोई धर्मात्मा, दानी और भारी मन्दिर निर्माता धनकुबेर अग्रवाल श्रावक उस काल में और उस प्रदेश में हुआ अवश्य है, भले ही उसका वास्तविक नाम पाडासाहु या भैंसाशाह न भी रहा हो । हो सकता हैं कि खजुराहो के विपलद्रव्य साध्य मन्दिरों का निर्माता श्रेष्ठ पाहिल या अन्य वैसा ही कोई सेठ इस उपनाम से प्रसिद्ध हो गया हो। E-580SENSEES ADMWMtel गुजरात-सौराष्ट्र पश्चिम भारत का वह बड़ा भूभाग जो वर्तमान मुजरात राज्य (प्रान्त) के नाम से जाना जाता है, अत्यन्त प्राचीन काल से, कम-से-कम महाभारतकालीन वाईसबै तीर्थकर अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के समय से, जैनधर्म का एक प्रमुख गढ़ रहला आया है। इतिहासकाल में यदुवंशियों के उपरान्त मौर्यो, शक, क्षहरातों और महाक्षत्रपों तथा तदनन्तर बलभी के मैत्रकर्वशी राजाओं का यहाँ शासम्म रहा। शैव, वैष्णव, बौद्ध आदि अन्य धर्म मी यहाँ फले-फूले, साथ ही इनकम की प्रवृत्ति भी जनता में चलती रही। कई एक राजा भी जैन हुए और जो जैन नहीं थे वे भी इस धर्म के प्रति सहिष्णु और उसके प्रश्रयदाता रहे। मैत्रक नरेश शिलादिस्य प्रथम (595-615 ई.) आदि के प्रश्रय में जिनभद्रमणि-क्षमाश्रमण जैसे जैनाचार्यों ने विपुल साहित्य रचा । सातवीं शती के मध्य के लगभग मैत्रकयंश का अन्त हुआ। उस काल में यह भूभाग सौराष्ट्र के सैन्धव, भड़ौच के गुर्जर, लाट के चालुक्य, सौरमण्डल के वराह, अनिलवाड़े के चावड़ा आदि कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। जैनाचार्य जिनसेन के 'हरिवंशपुराण' (783 ई.) के अनुसार उस समय सौरमण्डल में महाबराह के पुत्र या पौत्र जयवीर-धराह का शासन था। प्रायः उसी समय से गुर्जर-प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के बीच गुजरात को हस्तगत करने की होड़ लगी, जिसमें राष्ट्रकूट सफल रहे और हवीं शती के प्रारम्म से लेकर 10वीं शती के प्रथम पाद पर्यन्त राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के अनुज इन्द्र के कर्क, धुय, कृष्ण आदि वंशज मान्यखेट के सम्राटों के प्रतिनिधियों के रूप में गुजरात देश के बहुभाग के प्रायः स्वतन्त्र शासक रहे। यह राजे भी जैनधर्म के पोषक थे। जैन सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम का चचेरा भाई एवं प्रतिनिधि लााधिप कर्कराज-सुवर्णवर्ष जैनधर्म का भक्त था। उसके शासनकाल में नक्सारिका (नवसारी) में एक जैन विद्यापीठ की स्थापना हुई थी, जिसके अधिष्ठाता दिगम्बसचार्य परवादिमल्ल के प्रशिष्य थे। उन्हें उक्त संस्थान के लिए कर्कराज ने अपने 82 ई. के नवसारी ताम्रशासन द्वारा भूमि आदि का प्रभूत दान दिया था। 248 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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