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में खजराहो में एक जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। यह प्रतिमा घण्टाई मन्दिर में थी। सम्भव है कि उक्त मन्दिर के निर्माण में भी इस श्रेष्टि-दम्पत्ती का योग रहा हो। यह मन्दिर भी अत्यन्त कलापूर्ण है।
साहु साल्हे-गृहपतिवंशी श्रेष्ठ देदू के पुत्र बाहित और उसके पुत्र साहु साल्हे थे। साल्हे के पुत्र महागण, महीचन्द्र, श्रीचन्द्र, जितचन्द्र, उदयचन्द्र आदि थे। महाराज पदनदेव के राज्य में 1156 ई. की माप सुदि । के दिन साह सान्हे ने अपने पुत्रों सहित खजुराहो में रूपकार (मूर्तिकार रामदेव से निर्मित कराके तीसरे तीर्थकर सम्भयनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। श्यापपाषाण में निर्मित यह मूर्ति भी उस स्थान के मन्दिर में. 27 में प्राप्त हुई है। इस लेख के साहु साल्हे के पिता पाहिल्ल को प्रायः पूर्वोक्त 954 ई. के भव्य पाहिल से अभिन्न समझा लिया जाता है, किन्तु यह दोनों सर्वथा भिलत्पपित्त हैं, दोलों के हिच सौ साई से अधिक कार अन्तर है। वही संवत् 1215 (अर्थात् 1158 ई.) उसी मन्दिर की एक अन्य श्यामवर्ण पाषाण की आदिनाथ प्रतिमा की चरण-चौकी पर अंकित है और साथ में श्री चारुकीर्ति मुनि और उनके शिष्य कुमारनन्दि के नाम भी। सम्भव है ये मुनिराज प्रतिमा के सथा शायद मन्दिर के भी प्रतिष्ठाचार्य हो।
साहु रत्नपाल-साघु देवगन सांगय्य के पुत्र साधु श्री रत्नपाल ने अपनी भार्या साधा और पुत्रों कीर्तिपाल, अजयपाल, यस्तुपाल और त्रिभुधनपाल के साथ महोबा में 163 ई. को ज्येष्ठ सुदि अष्टमी रविवार के दिन भगवान अजितनाथ को तथा एक अन्य जिनप्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। सम्भवतया कोई जिनमन्दिर भी बनवाया घा। नामों से लगता है कि यह परिवार सुशिक्षित एवं सम्भ्रान्त था।
पाड़ाशाह (भैंसाशाह)-बुन्देलखण्ड में बहुप्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार यहाँ 12वीं-13वीं शताब्दी ई. के लगभग एक अग्रवाल जैन धनकुबेर हो गया है जो पाड़ाशाह या भैंसाशाह के नाम से प्रसिद्ध है। उसका मूल नाम क्या था, कोई नहीं जानता। प्रारम्भ में यह व्यक्ति अति साधारण श्रेणी का एक वणिक् था जो अपने पड़े या पाई (मैंसे) पर तेल के कुप्पे लादकर गाँव-गौच जाकर तेल बेचा करता था। कहा जाता है कि एक दिन जब मार्ग के एक जंगल में वह सुस्ता रहा था तो उसने देखा कि उसके भैंसे के खुर की लोहे की नाल सोने की हो गयी है। आश्वचकित हो उसने आसपास खोजा तो उसे जसका कारण अर्थात पारस-पथरी मिल मधी। अद क्या था, पारस-पथरी के प्रसाद से वह शीघ्र ही धनकुबेर हो गया। अपने उस भाग्यदूत भेस के कारण ही वह भैसाशाह या पाडाशाह कहलाया। अपने अखूट धन का भी उसने सदुपयोग किया। बुन्देलखण्ड प्रदेश के विभिन्न स्थानों में हजार-आठ सौ वर्ष पुराने जो सैकड़ों जैनमन्दिर या उनके अवशेष पाये जाते हैं, प्रायः उन सबके निर्माण का श्रेय उक्त पाड़ाशाह को ही दिया जाता है। वह बड़ा उदार और दानी था। अनेक कूप, शायड़ी, तडाग आदि लोकहित के निर्माण के अतिरिक्त कोई भी
उत्तर भारत :: 247