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जिनमन्दिर और जिन - प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हुईं। राजधानी महोबा में इस कालंजराधिपति परमार्दिदेव के शासनकाल के तीसरे वर्ष 1167 ई. में एक जैन मन्दिर का निर्माण और प्रतिष्ठा हुई लगती है और 1177 ई. में खजुराहो में एक जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई थी। अहार क्षेत्र की तीर्थकर शान्तिनाथ की विशाल मनोज्ञ खड्गासन प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी इसी राजा के शासनकाल में 1180 ई. में हुई थी। इस प्रतिमा का निर्माता कुशल रूपकार पाप था। इस भर के राज्य में क्लिपुर नगर के आचार्य गुणभद्र ने अपने 'धन्यकुमार- चरित्र' की रचना आचार्य शुभचन्द्र के गृहस्थ-शिष्य लम्ब कांचुक (च) वंशी श्रावक वण के लिए की थी। तेरहवीं शती के उत्तरार्ध में चन्देल राज arrangea के समय की, 1274-78 ई. की लेखांकित जैन मूर्तियाँ मिलती हैं। अन्ततः मुसलमानों द्वारा चन्देल राज्य का अन्त 1310 ई. के लगभग हो गया। अकेले देवगढ़ में 959 से 1250 ई. तक के डेढ़ दर्जन से अधिक जैन प्रतिमालेख, शिलालेख आदि प्राप्त हुए हैं।
चन्देल नरेशों के शासनकाल में देवगढ़-खजुराहो, महोबा, कालंजर, अजयगढ़, अहार-मदनपुरा, मदनसागरपुर, बानपुर, पपौरा, चन्देरी, दूदाही, चन्दपुरा आदि चन्देल राज्य के प्रायः सभी प्रमुख नगरों में समृद्ध जैनों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँ थीं। उनके श्रीदेव वासवचन्द्र, कुमुदचन्द्र आदि अनेक निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुओं एवं विद्वान् आचार्यों का राज्य में उम्युक्त विहार था । अनेक भव्य विशाल जिनमन्दिरों एवं जैन - कलाकृतियों का उक्त स्थानों में निर्माण हुआ। जैनकला के चन्देल कालीन अवशेष तत्कालीन भारतीय कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में परिगणित हैं और उस काल की कला शैली का सफल प्रतिनिधित्व करते हैं। राज्य के जैनी ने भी उस राज्य की सर्वतोमुखी उन्नति में पूरा योगदान दिया। अनेक उल्लेखनीय जैन निर्माता और धर्मात्मा श्रावक उस काल में हुए ।
श्रेष्ठि पाहिल-अपने कुल की कीर्ति को धवल बनानेवाला, दिव्यमूर्ति, सुशील, क्षम-दम-गुणयुक्त, सर्व सत्त्वानुकम्पी (समस्त प्राणियों पर दयाभाव रखनेवाला), स्वजनों से पूर्णतया सन्तुष्ट या सुजनों को सदा तुष्ट रखनेवाला, चन्देलनरेश धंगराज द्वारा सम्मान प्राप्त और गुरु श्री वासवचन्द्र महाराज का भक्त एवं गृहस्थ-शिष्य श्रेष्ठि पाहिल ( पाहिल)। उसने भगवान् जिननाथ को प्रणाम करके उनके प्रासाद के संरक्षण के निमित्त राजा की सहमतिपूर्वक 954 ई. में पाहिलवाटिका, चन्द्रवाटिका, लघुचन्द्रवाटिका, शंकरवाटिका, पंचायतनवाटिका, आम्रवाटिका और धंगवाटिका नामक सात विस्तृत उद्यानों का दान किया था। दान-शासन के अन्त में भव्य पाहिल्ल ने यह भावना की थी कि कोई भी राजा इस पृथ्वी पर शासन करे, वह पाहिल्ल को अपना दासानुदास समझकर उसके द्वारा प्रदत उक्त सात चाटिकाओं की भूमि का संरक्षण करता रहे।
यह शिलालेख खजुराहो के तथाकथित पारसनाथ मन्दिर के द्वार की दाहिनी
उत्तर भारत 245