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से कलधुरि, चेदि या बैंकटक संवत् का प्रारम्भ माना जाता है । इहिडमण्डल में त्रिपुरी (मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले का तेवर) इन कलधुरियो की प्रधान राजधानी थी। दक्षिण वेदि या दक्षिण कोसल के कलचरियों की राजधानी रतनपुर (विलासपुर) थी। कलचुरियों की एक शाखा सरयूपारी थी जिसका राज्य गोण्डा-बहराइच में था। त्रिपुरी का कलरे बंश अति प्रतिष्ठित माना जाता था। विभिन्न राजवंशों के नरेश इनके साथ विवाह सम्बन्ध करने में गौरय मानते थे। इस वंश का उत्कर्ष काल वीं से 12वीं शताब्दी तक रहा। सातवीं शती में शंकरमण प्रथम इस वंश का प्रसिद्ध सजा था। उसने 629 ई. जैन-तीर्थ कुल्पाकक्षेत्र की स्थापना की थी। इस राज्य में जैनधर्म की प्रवृत्ति प्रायः बनी रही 1 जो राजे जैन नहीं थे, वे भी इस धर्म के प्रति सहि और उसकारका रहे प्रसात हतारी एक खंडहरों से तथा महाकासल, विदर्भ आदि के अनेक स्थानों से पूर्वमध्यकाल की अनेक मनोज्ञ एवं कलापूर्ण जिनमूर्तियों तथा जैनमन्दिरों के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। आठवीं शती में लक्ष्मणराज और कोक्कल प्रथम हुए, और 9ीं शती में शंकरमण द्वितीय या शंकित (878-900 ई.) प्रतापी नरेश था । मुग्धतुंग, प्रसिद्धधवल और रणविग्रह उसके विरुद्ध थे। तदुपरान्त बालहर्ष और युवराज केयूरवर्ष (9283-950) हुए। केयूरवर्ष ने रत्नपुर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया था। उसकी पुत्री कुणालदेवी राष्ट्रकूट अमोघ तृतीय से विवाही थी और उसके उत्तराधिकारी लक्ष्मणराज तृतीय की पुत्री बोधादेवी चालुक्य तैलप द्वितीय की जननी थी। तदनन्तर शंकरगण तृतीय, बुवराज द्वितीय, कोक्कल सितीय, गंगेयदेव विक्रमादित्य (1015-41 ई.), कर्णदेव (1(141-70 ई.}, यशःकर्ण (1077-1125 ई.) और गयकर्णदेव {1125-51 ई.) नामक नरेश हुए। गयकर्णदेव भी जैनधर्म का आदर करता था। उसके महासामन्ताधिपति गोस्हणदेव राठौर ने, जो जैनधर्म का अनुयायी था, जलथपुर से 42 मीला उत्तर में स्थित बहुरोबन्द के खनुवादेव नाम के प्रसिद्ध जैनतीर्थ की जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी। तदनन्तर विजयसिंहदेव कलचुरि (1195 ई.} तो निश्चित रूप से परम जैन था। उसके समय में राज्य एवं प्रजा का प्रधान धर्म जैन ही था।
कलपरियों के शासनकाल में महाकोसल प्रदेश में जैनाश्रित शिल्प-स्थापत्य एवं मूर्तिकला का अभूतपूर्व विकास हुआ। इनमें से कोई-कोई जैनकृतियों तो सम्पूर्ण तत्कालीन भारतीय कला की उत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखती हैं। अनेक जैनतीर्थ एवं सांस्कृतिक केन्द्र इस प्रदेश में स्थापित हुए, यथा कुल्पाक; खनुवादेव, रामगिरि, जोगीमारा, कुण्डलपुर, कारंजा, आरंग, एलोस, अचलपुर, धाराशिव आदि । कारंजा प्राचीन काल से ही एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहता आया है। अपभ्रंश भाषा के सुप्रसिद्ध जैन महाकवि पुष्पदन्त इसी प्रदेश के रोहणखेड स्थान के निवासी थे। रायपुर जिले के आरंग नामक स्थान में एक प्राचीन जैन-मन्दिर है, जिसके निर्माता तत्कालीन राजा को सजर्षितुल्य कहा गया है। सम्भवतया या राजा
242 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ