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________________ में स्थापित तारादेवी की सहायता से शास्त्रार्थ कर रहे थे। अन्त में अकलंकदेव ने तारा का विस्फोट करके बौद्धों को शास्त्रार्थ में पूर्णतया पराजित किया। राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उसने तथा उसके अनेक प्रजाजनों ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया परिणाम ओक घोड़ा सुदूरपूर्व के भारतीय राज्यों एवं उपनिवेशों में चले गये। जैनों ने बड़े उत्साह से यह विजयोत्सव एवं अपना धर्मोत्सव मनाया। आचार्य अकलकदेव ने वापस स्वदेश पहुँचकर अपने भक्त वातापी के पश्चिमी चालुक्य नरेश साहसतुंग, सम्भवतया विक्रमादित्य प्रथम ( 643-680 ई.) को, जैनधर्म की रक्षार्थ क्यों और कैसे उन्होंने यह वादविजय की थी, उसका वर्णन सुनाया था। कलिंगदेश का उपर्युक्त राजा हिमशीतल सोमवंशी त्रिकलिंगाधिपति tige महाभगुप्त सतुर्थ प्रतीत होता है । कलिंगनरेश उद्योतकेसरी ललाटेन्दु- 11वीं शताब्दी में कलिंग का प्रसिद्ध जैन नरेश उद्योतकेसरी वा जो देशीगणाचार्य भट्टारक कुलचन्द्र के शिष्य खल्ल शुभचन्द्र का भक्त एवं गृहस्थ-शिष्य था । उड़ीसा की उदयगिरि-खण्डयिरि की गुफाओं में इस नरेश के राज्यकाल के 5वें वर्ष से 18वें वर्ष तक के कई शिलालेख मिले हैं। उसके 5वें वर्ष के ललाटेन्दुयुफा (या सिन्धराजगुफा) के लेख के अनुसार इस राजा ने सुप्रसिद्ध कुमारीपर्वत पर नष्ट सरोवरों एवं जिनमन्दिरों का पुनर्निर्माण कराके वहाँ 24 तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायी थीं। उसने खण्डगिरि की नवमुनिगुफा में अपनी-अपनी यक्षियों (शासन देवियों) सहित दस तीर्थंकारों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण करायीं और बारभुजीगुफा में चौबीसों तीर्थंकरों को उनकी पृथक्-पृथक् वक्षियों सहित मूर्तियाँ अंकित करायी। हनुमानगुफा में भी प्रायः उसी काल के मूर्तांकन है। मुक्तेश्वर मन्दिर की चहारदीवारी की बाहरी रविकाओं पर उत्कीर्ण तीर्थकर प्रतिमाएँ भी प्रायः उसी काल की हैं। राजा के गुरु कुलचन्द्र और खल्ल - शुभचन्द्र भी इन्हीं गुफाओं में निवास करते थे। एक लेख में इन शुभचन्द्र के छात्र विजी का भी उल्लेख है। सम्भवतया उड़ीसा (कलिंग) का वह परम जैन नरेश उद्योतकेसरी ललाटेन्ड सोमवंशी ही था। महाकोसल के कलचुरि राजे कलिंग के पश्चिमी भाग अर्थात् दक्षिण कोसल, विदर्भ और मध्य प्रदेश के कुछ भागों से महाकोसल राज्य का निर्माण हुआ था। मगध के नन्द, मौर्य आदि सम्राटों के पश्चात् कलिंग चक्रवर्ती खारवेल और उसके वंशजों का तदनन्तर आन्ध्र सातवाहनों का इस प्रदेश पर अधिकार रहा, जिनके उपरान्त वकाटकों का राज्य उरी से 5वीं शती पर्यन्त चला। सम्भवतया काटकों के सामन्तों के रूप में ही कलचुरि वंश की, जिसे हैहय या येदि वंश भी कहा गया है, और सम्भव है कि जो चेतिवंशी खारवेल के वंशजों की ही एक शाखा थी, 249 ई. में यहाँ स्थापना हुई। इसी वर्ष उत्तर भारत 241
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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