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लगभग छठी-सातवों शताब्दी के बाप्पपर-शिलालेख में प्रकट हैं कि उस समय कॉलग" के शैलोद्भववंशी नरेश धर्मराज की रानी कल्याणदेवी ने धार्मिक कार्यों के लिए एक जैन मुनि को भूमिदान दिया था। निशीथपूर्णि के अनुसार पूरी एक प्रसिद्ध जलपट्टण (बन्दरगाह) और समुद्री व्यापार का प्रधान केन्द्र था। इसी प्रकार कांचनपुर भी सिंहलद्वीप आदि के साथ व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। पाँचवीं-छठी शताब्दी में कलिंगदेश में चार राज्यवंशों का उदय हुआ। पहला पूर्वी-गंगों का था जो कर्णाटक के पश्चिमी गंगों की ही एक शाखा थी। यह वंश किसी-न-किसी रूप में मध्यकाल तक चलता रहा और जैन ने होते हुए भी जैनधर्म के प्रति सहिष्णु था। दूसरा वंश तोसाले के भौमकरों का था। कियोंझर का भंजी-राज्य उन्हीं की सन्तत्ति में हुआ। इस राज्य के आनन्दपुर तालुके में नगर से 10 मील दूर बन में सिंगाडि और बदखिया नाम की प्राचीन बस्तियों हैं, जिनके आसपास धनों और पहाड़ियों में जैन तीर्थंकरों एवं देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियों, मन्दिरों, स्मारकों, सरोवरों आदि के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। जैन अनुश्रुतियों में वर्णित ऋषिलझाम, जो वार्षिक अष्टातिकोत्सव के लिए प्रसिद्ध था, वहीं रहा प्रतीत होता है। तीसरा वंश कौंगद के शैलोद्भव नरेशों का था। इसी वंश के आठवें राजा महाभीत धर्मराज की रानी कल्याणदेवी द्वारा जैन मुनियों को दान देने का ऊपर उल्लेख किया गया है। चौथा वंश कलिंगदेशान्तर्गत कोसत के सोमशियों का था। इस वंश की प्रथम शाखा ने 4थी से 6ठी शती पर्धन्त
और दूसरी ने छठी से 12वीं शती पर्यन्त राज्य किया। हेनसांग ने अपने वृत्तान्त में इसी वंश के कलिंग नरेश का वर्णन किया है। अकलंकदेव सम्बन्धी जैन अनुश्रुति का त्रिकलिंगाधिपति हिमशीतल इस वंश का राजा रहा प्रतीत होता है।
राजा हिमशीतल-जैनाचार्य अकलकदेव के समय (7वीं शती ई. के मध्योत्तर काल) में कलिंगनरेश महाराजाधिराज हिमशीतल था। वह बौद्धों के महायानी सम्प्रदाय का अनुयायी था, किन्तु उसकी राजमहिषो मदनावती परम जिनभक्त थी। एक समय जब यह उड़ीसा के हीरकतट पर स्थित अपनी उपराजधानी रनसंघयपुर में निवास कर रहा था तो कार्तिकी अष्टाहिका निकट थी। महारानी तथा उसके प्रश्रय में स्थानीय जैनों ने पर्व को विशाल रथोत्तय द्वारा समारोहपूर्वक मनाने का विचार किया, किन्तु राजा के बौद्ध गुरु इस कार्य में बाधक हुए। अन्ततः राजा ने निर्णय दिया कि यदि कोई जैन विद्वान् बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर देंगे तो जैनों को अपना उत्सव मनाने और रष निकालने की अनुमति दे दी जाएगी। रानी तथा अन्य जैनीजन बड़े चिन्तित हुए। उनके सौभाग्य से उसी समय नगर के बाहर उद्यान में महाराष्ट्र के दिग्गज जैनाचार्य भटाकलंकदेव पधारे थे। रानी के साथ श्रावक लोग तुरन्त उनके दर्शनार्थ वहाँ गये और उनसे अपनी समस्या निवेदन की। आचार्य ने बौद्धों की चुनौती स्वीकार की हिमशीतल नरेश की राजसभा में यह शास्त्रार्थ सोर शोर के साथ चला- कोई कहते हैं कि छह महीने तक चला। बौद्धाचार्य घट
240 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिला