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________________ इथूण्डी के राठौड़ राजे राजस्थान के हथूण्डी (हस्तिकुण्डी) नामक नगर में 10वीं शताब्दी में राठौड़वंशी जैन धर्मानुयायी राजपूत राजाओं का शासकथा सम्भलका ये राज के राष्ट्रकूटों की ही किसी शाखा से सम्बन्धित थे। दसवीं शती के प्रारम्भ में हथूण्डी का राठौड़नरेश विदग्धराज जैनधर्म का परम भक्त था। उसने 916 ई. में अपनी राजधानी हण्डी में तीर्थंकर ऋषभदेव का विशाल मन्दिर बनवाया था और उसके लिए पुष्कल भूमिदान किया था। उसके गुरु बलभद्र या वासुदेवसूरि थे। इस राजा ने स्वयं को स्वर्ण से तुलवाकर वह सारा सोना उक्त मन्दिर एवं स्वगुरु को दान कर दिया था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी महाराज मम्मट ने भी 999 ई. में उक्त जिनालय के लिए विपुल द्रव्य दान किया था और उसने अपने पिता द्वारा प्रदत्त दान- शासन की भी पुष्टि की थी। मम्मट का पुत्र महाराज धवल भी परम जिनभक्त था। उसने 997 ई. में उपर्युक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। उसमें भगवान् ॠदेव की एक नवीन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की और उसके लिए दान दिया था। इस राजा के गुरु वासुदेवसूरि के शिष्य शान्तिभद्रसूरि थे और किन्हीं सूराचार्य ने उसकी दान- प्रशस्ति लिखी थी। जैनधर्म की प्रभावना के लिए इस नरेश ने अन्य भी अनेक कार्य किये थे। अर्थणा का भूषण सेठ राजस्थान के स्थाले प्रदेश में तलपाटक नाम का सुन्दर नगर था । वहाँ नागरवंश के तिलक, अशेष-शास्त्राम्बुधि, जिनकी अस्थि मज्जा जैनेन्द्रागम की वासना के रसामृत से ओत-प्रोत थी, ऐसे अम्बर नाम के गृहस्थ वैद्यराज थे जो संयमी एवं देशव्रती थे। वह षट्आवश्यक कर्मों का निष्ठापूर्वक पालन करते थे। उनकी उपासना के फलस्वरूप उन्हें चक्रेश्वरीदेवी सिद्ध हो गयी थी, जिसके प्रताप से उन्होंने अनेक चमत्कारी इलाज किये थे। उनके सुपुत्र पापाक विमल बुद्धिवाले श्रुत के रहस्य के ज्ञाता, सम्पूर्ण आयुर्वेद में पारंगत और अनुकम्पापूर्वक विभिन्न रोगों से पीड़ित रोगीजनों को नीरोग करने में दक्ष थे। उनके आलोक, साहस और लल्लुक नाम के तीन शास्त्र - विशारद सुपुत्र हुए। उनमें ज्येष्ठ आलोक सहज विशद प्रज्ञा से भासमान, सकल इतिहास एवं तत्त्वार्थ के ज्ञाला संवेग आदि गुणों के सम्यक् प्रभाव की अभिव्यक्ति, दानी, अपने परिवार के आधार, साधुसेवी, सबको आनन्द देनवाले, भोगी और योगी एक साथ थे। वह मधुरान्वयरूपी आकाश के सूर्य तथा अपने व्याख्यानों से समस्त सभाजनों का रंजन करनेवाले श्री छत्रसेनगुरु के चरणारविन्द के अनन्य भक्त थे। इन आलोक की प्रशस्त अमल शीलवती हेला नाम की श्रेष्ठ धर्मपत्नी थी और उससे उनके नय- विवेकवन्त तीन पुत्ररत्न उत्पन्न हुए, जिनके नाम उत्तर भारत 237
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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