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________________ मौर्यवंश की एक शाखा का राज्य रहा। चित्तोड़ का अन्तिम मौर्य नरेश राहम्पदेव था जो धवलप्पदेव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी और सम्भवतया उन वीरप्पदेव का ज्येष्ठ भ्राता था जो आगे चलकर श्रीधवल आदि विशाल आगमिक टीकाओं के कर्ता वीरसेन स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हुए । चित्रकूटपुर में निवास करनेवाले एलाचार्य के निकर इन्होंने सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन किया था और तदनन्तर राष्ट्रकूटों के राज्य के अन्तर्गत वाटनगर में अपना विद्यापीठ बनाया था, जहाँ उन्होंने अपने उक्त महान् ग्रन्थों की रचना की। राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग ने राहप्पदेव को पराजित करके उसकी श्रीवल्लभ उपाधि और श्वेतच्छत्र भी अपना लिये थे। सहम्पदेव निस्सन्तान था, अतएव उसके पश्चात् उसका भानजा बप्पारावल कालभोज उपनाम खोम्मण प्रथम, 750 ई. के लगभग, चित्तौड़ का प्रथम सूर्यवंशी, गुहिलोत एवं सीसोदिया राणा हुआ। उसके समय में चित्तौड़ के एक राजमान्य ब्राह्मण विद्वान् श्वेताम्बर आर्यिका याकिनी - महत्तरा के उपदेश से प्रभावित होकर साधु हो गये और हरिभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। वहीं इन महान् आचार्य ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में विविध विषयक ग्रन्थ को बचना की चीन में इस वंश के राजा शक्तिकुमार के समय में चित्तौड़ का सर्वप्रसिद्ध जैन जवस्तम्भ सम्भवतया मूलतः बना था । राजाओं का कुलधर्म शैव था, किन्तु जैनधर्म के प्रति के प्रारम्भ से अन्त तक अत्यन्त उदार और सहिष्णु रहे। कई राजे, राजवंश के कितने ही स्त्री-पुरुष तथा मन्त्री, अमात्य, दीवान, भण्डारी, सामन्त-सरदार, दण्डनायक एवं अन्य कर्मचारियों में से अनेक जैनी होते रहे हैं। कहा जाता है कि मेवाड़ राज्य में दुर्म की वृद्धि के लिए जब जब उसकी नींव रखी जाती थी तो साथ ही एक जैनमन्दिर बनवाने की प्रथा थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों के निकट प्राचीन जिनमन्दिर आज भी खड़े हैं। अनेक जैनमन्दिर मेवाड़ नरेशों ने स्वयं या अपनी अनुमति से बनवाये और कितने ही जिनायतनों आदि के लिए दान दिये। मेवाड़ के सुप्रसिद्ध जैनतीर्थ केसरियानाथ ऋषभदेव को जैन ही नहीं, शैव, वैष्णव और भील लोग भी आजतक पूजते आते हैं। सूर्यास्त के उपरान्त भोजन करना राज्य भर में राजाज्ञा द्वारा मना था | जैन साधु-साध्वियों का राज्य में निर्बाध विहार होता रहा है। यह राजवंश अनेक उत्थान - पतनों के बीच से होता हुआ वर्तमान पर्यन्त चला है और मध्यकाल में तो बहुधा राजपूत राज्यों का शिरमौर रहा है। मेवाड़ के राहड़पुर एवं नलोटकपुर के निवासी सेठ नेमकुमार बड़े धर्मात्मा, विद्वान्, दानी और यशस्वी थे। उन्होंने नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ के दो मन्दिर बनवाये थे। उनके बड़े भाई राहड़ ने 22 जिनमन्दिर बनवाये थे। नेमकुमार के पुत्र वाग्भट ने 12वीं शती में 'छन्दोऽनुशासन' की रचना की थी। 236 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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