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मेधावी, अद्भुत प्रत्युत्पन्नमति, न्यायशासन दक्ष, विचक्षण बुद्धि, कूटनीति विशारद, राजनीति पटु, प्रजावत्सल, अति कुशल प्रशासक एवं आदर्श राज्यमन्त्री के रूप में उनकी ख्याति है। जब-जब राज्य पर कोई संकट आया, चाहे वह अवन्ति के चण्डप्रद्योत-जैसे प्रतिद्धन्दी का प्रचण्ड आक्रममा धा, अथवा अन्य कोई बाह्य या आन्तरिक दुर्घटना, अभयकुमार ने अपने बुद्धि ताल से अपने राज्य के धन, जन और प्रतिष्ठा की, तुरन्त और सफल रक्षा की। बेघ बदलकर समय-समय प्रजाजनों के बीच विचरकर आवश्यक सूचनाएं प्राप्त करना, उनके सन्तोष-असन्तोष को जाममा, न्यायविषयक जाँच अपने ढंग से करना जिससे कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाये, शान्ति सुरक्षा बनाये रखना, राजमहलों के एवं बाहर के विग्रहों को शान्त करना, पड्यन्त्रों को विफल करना, इत्यादि से सम्बन्धित मन्त्रीराज अभय के विषय में अनगिनत रोचक प्रसंग एवं कहानियाँ लोक प्रचलित हैं तथा विविध प्राचीन जैन साहित्य में भी उपलब्ध हैं। आज भी दीपावली के अवसर पर पूजन करने के उपरान्त अनेक जैनीजन अपनी बहियों में लिखते हैं--"श्री गौतम स्वामी तणी लश्चि होयजी, श्री धन्ना-शालिभद्जी तणी ऋद्धि होयजो, श्री अभयकुमारजी तणी बुद्धि होयजी" इत्यादि।
___ इस प्रकार जैन परम्परा में लौकिक क्षेत्र में अपने बद्धि बल से कठिन पत्थियों को क्षणमात्र में सुलझाने में मगधराज श्रेणिक के इस बुद्धिनिधान मन्त्रीश्वर अभयकुमार को आदर्श एवं अद्वितीय समझा जाता है और उन जैसी बुद्धि की प्राप्ति की भावना पायी जाती है।
सुदक्ष राजनीतिज्ञ के नाले प्रायः सभी तत्कालीन राज्यों, यहाँ तक कि पारस्य (ईरान) जैसे सुदूर विदेशों में भी अभय राजकुमार के मित्र थे। इनमें पारस्य देश के राजकुमार आर्द्रक (सम्भवतया अर्देशिर) का, जिसके नाम का भारतीयकरण आर्द्रकुमार हुआ, विशेष रूप से उल्लेख मिलता है।
इतने बड़े राज्य का शक्ति सम्पन्न महामन्त्री तथा स्वयं महाराज का ज्येष्ट पुत्र होते हुए भी अभय राजकुमार को राज्य-लिप्सा छू भी नहीं गयी थी। यह अत्यन्त धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे। पिता ने इन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता तो स्पष्ट इनकार कर दिया, और माता-पिता एवं स्वजन-परिजनों की अनुमति लेकर महावीर प्रभु की शरण में जाकर मुनि-दीक्षा ले ली। मुनिरूप में उन्होंने विदेशों में विहार करके प्रभु के उपदेश को फैलाया, ऐसा भी प्रतीत होता है। जब मुनि अभयकुमार पारस्य देश पहुँचे तो इनका परम मित्र राजकुमार आद्रक इसके दर्शनार्थ आया और इन्हीं के रंग में रंग गया। इन्हीं के साथ वह भारत आया, भगवान् के दर्शन किये और उनका शिष्य बनकर जैन मुनि हो गया। मतान्तर से अभय ने आर्टक की प्रार्थना पर उसके पास भारत से सुवर्ण की एक जिन-प्रतिमा भेजी थी जिसे पाकर आर्द्रक भारत के लिए वैरागी होकर चल पड़ा। परिजनों के द्वारा रोक
st :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ