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________________ विशाल (लगमग 110,100 फुट क्षेत्रफल का) एवं पमोहर जिनमन्दिर बनवाया, उसमें भगवान ऋषभनाथ मनि और धर्टी प्रतिमा गाधर और सरस्वती देवी की मूर्तियाँ भी, बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठापित की, और उक्त जिनेश्वर मन्दिर में नित्यपूजन तथा उसके संरक्षण के लिए महाराजाधिराज विक्रमसिंह से ग्राम, वाटिका, यानी, गेहूँ के राजकर का अंश, मुनियों के अभ्यंजनार्थ दो घड़े नियमित तेल आदि का प्रभूत दान दिलाया, जो धर्मात्मा राजा चे सहर्ष समर्पित किया। यह दानोत्सव 1888 ई. को माद्रपद शुक्ला तृतीया, सोमवार के दिन सम्पन्न हुआ। शुद्धधी उदयराज ने यह प्रशस्ति लिखी और शिलाकूट तील्हण ने उसे अंकित किया था। उसी नगर (दूधकुण्ड) में काष्ठासंघ के महाचार्य देवसेन का स्वर्गवास होने पर 1095 ई. की वैशाख सुदि पंचमी के दिन उनकी चरणपादुका ससमारोह स्थापित की गयी थी। 12वीं शती के मध्य के लगभग तक कदछपधात राजाओं का शासन ग्वालियर प्रदेश में सलता रहा। स्वयं ग्वालियर के दुर्ग में उनके द्वारा प्रतिष्ठापित उस काल की तीर्थकर पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा अभी तक विद्यमान है। वंश की एक शाखा का शासन नरवर में था और उस कुल के इष्टदेव भगवान पार्श्वनाथ थे। सम्भयत्त्या ग्वालियर की प्रतिमा नरवर के राजाओं की कृति हो। कालान्तर में म्बालिवर के कच्छपधातों के वंशज ही आमेर के कछवाहा राजपूतों के रूप में प्रसिद्ध हुए। बयाना के यादव वर्तमान राजस्थान के भरतपुर जिले के बयाना नगर का मूल नाम श्रीपथ था और यह प्रदेश भद्रानक कहलाता था, जिसका प्राकृत-अपभ्रश में भमणय हुआ और मुसलमानों ने भियाना या बयाना कर दिया। मधुरा (महाधन) के यदुवंशी राजा इन्द्रपाल या जयेन्द्रपाल (966-992 ई.) के 11 पुत्रों में से एक विजयपाल था, जिसने महमूद गजनवी द्वारा मथुरा का विध्वंस एवं यादव राज्य का अन्त कर दिये जाने के उपरान्त बयाना में स्थतन्त्र राज्य स्थापित किया और 1040 ई. में इसी प्रदेश में विषयमन्दिरगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण किया। उसके 18 पुत्रों में सर्वाधिक प्रतापी एवं पराक्रमी त्रिभुवनपाल (तिहणपाल या तबनपाल) था, जिसने परमभट्टारक महाराजाधिराज-परमेश्वर, उपाधि धारण की और बयाना से 1 मील पश्चिम-दक्षिण में त्रिभुवनगिरिदुर्ग (त्रिभुवनगढ़, तिहनगिरि, ताहगढ़ या तवनगढ़) नामक सुदृढ़ किला' पहाड़ के ऊपर निर्माण किया। वह राजा जैनधर्म का परम पोषक था। उसी के समय में जायसवालवंशीय पैनों के एक बड़े दल ने उसके राज्य में आश्रय लिया। उनमें से कुछ को दुर्ग के अन्दर स्थान मिला और उनके वंशज उपसेतिया कहलाये। जो दुर्ग के बाहर पर्वत के नीचे थस्सी में रहे बै तिरोतिया कहलाये। कहा जाता है उत्तर भारत ::233
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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