SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तिम जीवन में पणिढ़तप्रवर आशाधरजी संसार-दंड-भोग से विरक्त उदासीन त्यागी व्रती श्रावक के रूप में आत्मसाधन में रत रहे। ग्वालियर के कच्छपधात राजे ग्वालियर प्रदेश के कच्छपघात (या कच्छपघट) वंशी राजाओं में 10वीं शती ई. के मध्य के लगभग माधव का नाम सर्वप्रथम मिलता है। सम्भवतया बही गुर्जर-प्रतिहार भोज के सामन्त के रूप में इस वंश एवं राज्य का संस्थापक था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी महोचन्द्र ने 956 ई. में सुहोनिया नामक स्थान में विपुल द्रव्य व्यय करके एक जिनमन्दिर बनाया था। इसी वंश में महाराजाधिराज बज्रदामन ने 977 ई. में सुहोनिया में ही एक जिनमन्दिर प्रतिष्ठापित किया था। यह नरेश परम जैन था। सुहानिया का मूल नाम सुधीनपुर था जिसे ग्वालियर के संस्थापक राजा सुधनपाल या सूरजपाल ने बसाया था 1 उसकी रानी कोकनयती ने भी एक विशाल जिनमन्दिर यहाँ बनवाया था, किन्तु यह बादामन के बहुत पूर्व की बात है। उसके समय के पूर्व से ही वहाँ कई जिनमन्दिर थे और जायसवाल जैनों की बस्ती भी उस प्रदेश में 10वीं 11वीं शती ई. से तो थी ही। राजा विक्रमसिंह कच्छपसिंहधात-अर्जुन भूपति के प्रपौत्र, भोज परमार से प्रशंसित राजा अभिमन्यु के पौत्र और राजा विजयपाल के पुत्र महाराजाधिराज विक्रमसिंह कच्छपघात ने 1088 ई. में चण्डोभ (दुबकण्ड) में, जो उसकी राजधानी थी, अपने राज्य के धनी श्रेष्ठियों द्वारा बनवाये गये जिममन्दिर के लिए एक गाँव की भूमि, एक पुष्पोद्यान, अनाज पर लगनेवाले राज्यकर का एक अंश, तेल इत्यादि का दान दिया था। राजा स्वयं परम जैन था। श्रेष्ठि दाहइचण्डोम (दूबकुण्ड) में जायस से निकलनेवाले (जायस) वंश में उत्पन्न वणिक्-श्रेष्ठ जासूक था जो सम्यग्दृष्टि, पात्रों को चतुर्विध दान देने में सदैव तत्पर, जिनेन्द्र के चरणों का भक्त-पूजक, यशस्वी, धनी सेट था । उसका वैभवशाली पुत्र जयदेव था जो सज्जनता की सीमा था। जयदेव की भार्या यशोमती स्त्रियों के रूप, शील, कुल आदि समस्त मुणों से पूर्ण थी। इस दम्पती के ऋषि और दाहड नाम के दो अत्यन्त गुणवान पुत्र थे। वे दोनों महाराज विक्रमसिंह के अति प्रियपान थे। अतएव राजा ने उन्हें नगरसेठ के पद पर प्रतिष्ठित किया था। लारवर्गट गच्छ के गुरुदेवसेन के प्रशिष्य और दुलमसेन के शिष्य मुनि शान्तिषण के पट्टधर विजयकीर्ति मुनि के परमागमसारभूत धर्मोपदेश को सुनने से प्रबोध को प्राप्त श्रेष्ठिवर दाहड ने तथा उनके साथी अन्य कई श्रेष्ठि-श्रावकों ने विचारा कि लक्ष्मी, बन्धु-बान्धवों और शरीर का समागम नाशवान है। अतएव धर्मात्मा सेठ दाहड ने, विवेकवान् केक, सुकृति सुर्पट, शुद्ध धर्म-कर्म धुरन्धर देवधर, गुणवान् महीचन्द्र तथा अन्य भी कई दाम-विचक्षण श्रावकों के सहयोग से वण्डोभ में एक अत्यन्त 232 :: प्रमुख तिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy